रविवार, 10 फ़रवरी 2013

महर्षि शरभंग - अरण्यकाण्ड (2)


भयंकर बलशाली विराध राक्षस का वध करने के पश्चात् राम, सीता और लक्ष्मण महर्षि शरभंग के आश्रम में पहुँचे। महर्षि शरभंग अत्यन्त वृद्ध थे। उनका शरीर जर्जर हो चुका था। ऐसा प्रतीत होता था कि उनका अन्त-काल निकट है। सीता और लक्ष्मण सहित राम ने महर्षि के चरणस्पर्श किया और उन्हें अपना परिचय दिया। महर्षि शरभंग ने उनका सत्कार करते हुए कहा, "हे राम! इस वन-प्रान्त में कभी-कभी ही तुम जैसे अतिथि आते हैं। अपना शरीर त्याग करने के पहले मैं तुम्हारा दर्शन करना चाहता था। इसलिये तुम्हारी ही प्रतीक्षा में मैंने अब तक अपना शरीर नहीं त्यागा था। अब तुम्हारे दर्शन हो गये, इसलिये मैं इस नश्वर एवं जर्जर शरीर का परित्याग कर ब्रह्मलोक में जाउँगा। मेरे शरीर त्याग करने के बाद तुम इस वन में निवास करने वाले महामुनि सुतीक्ष्ण के पास चले जाना, वे ही तुम्हारा कल्याण करेंगे।"


इतना कह कर महर्षि ने विधिवत अग्नि की स्थापना करके उसे प्रज्वलित किया और घी की आहुति देकर मंत्रोच्चार करते हुये स्वयं अपने शरीर को अग्नि को समर्पित करके ब्रह्मलोक को गमन किया।

महामुनि शरभंग के ब्रह्मलोक गमन के पश्चात् आश्रम की निकटवर्ती कुटियाओं में निवास करने वाले ऋषि-मुनियों ने वहाँ आकर रामचन्द्र से प्रार्थना की, "हे राघव! क्षत्रिय नरेश होने के नाते हम लोगों की रक्षा करना आपका कर्तव्य है। जो हमारी रक्षा करता है उसे भी हमारी तपस्या के चौथाई भाग का फल प्राप्त होता है। किन्तु दुःख की बात यह है कि आप जैसे धर्मात्मा राजाओं के होते हुये भी राक्षसजन हमें अनाथों की तरह सताते हैं और हमारी हत्या तक कर देते हैं। इन राक्षसों ने पम्पा नदी और मन्दाकिनी नदियों के क्षेत्रों तथा चित्रकूट पर्वत में भयानक उपद्रव मचा रखा है। उनके उपद्रव के कारण तपस्वियों के लिये तपस्या करना ही नहीं जीना भी दूभर हो गया है। ये समाधिस्थ तपस्वियों को मृत्यु के मुख में पहुँचा देते हैं। इसीलिये हम आपकी शरण में आये हैं। आप इस असह्य कष्ट और अपमान से हमारी रक्षा करें और हमें निर्भय होकर तप करने का अवसर दें।"

राम बोले, "हे ऋषि-मुनियों! आपके कष्टों के विषय में सुनकर मैं अत्यन्त व्यथित हुआ हूँ। पिता की आज्ञा से अभी मुझे चौदह वर्ष पर्यन्त इन वनों में निवास करना है। आप लोगों के रक्षार्थ मैं इस अवधि में राक्षसों का चुन-चुन कर नाश करना चाहता हूँ। आप सबके समक्ष मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि अपने भुजबल से मैं पृथ्वी के समस्त ऋषि-द्रोही राक्षसों को समाप्त कर दूँगा। आप लोग मुझे आशीर्वाद दें ताकि मैं इस उद्देश्य में सफल हो सकूँ।

इस प्रकार से उन्हें धैर्य बँधा और राक्षसों के विनाश की प्रतिज्ञा कर, रामचन्द्र सीता और लक्ष्मण के साथ मुनि सुतीक्ष्ण के आश्रम में आये। उन्होंने अत्यन्त वृद्ध महात्मा सुतीक्ष्ण के चरण स्पर्श किये और उन्हें अपना परिचय दिया। राम का परिचय पाकर महर्षि अत्यन्त प्रसन्न हुये। उन्होंने तीनों को समुचित आसन दिया, उनका कुशलक्षेम पूछा तथा फल आदि से उनका सत्कार किया। वार्तालाप करते करते सूर्यास्त की बेला आ पहुँची तब उन सबने एक साथ बैठकर सन्ध्या-उपासना की और रात्रि विश्राम भी उनके आश्रम में ही किया।

प्रातःकाल राम बोले, "हे मुनिवर! हमारे हृदय में दण्डक वन में निवास करने वाले ऋषि-मुनियों के दर्शन करने की उत्कृष्ट अभिलाषा है। हमने सुना है कि यहाँ ऐसे अनेक ऋषि-मुनि हैं जो सहस्त्रों वर्षों से केवल फलाहार करके तपस्या करते हुये सिद्धि को प्राप्त कर चुके हैं। ऐसे महात्माओं के दर्शनों से जन्म-जन्मान्तर के पाप नष्ट हो जाते हैं। इसलिये आप हमें जाने की आज्ञा दीजिये।"

महर्षि सुतीक्ष्ण ने आशीर्वाद देकर प्रेमपूर्वक उन्हें विदा करते हुए कहा, "हे राम! तुम्हारा मार्ग मंगलमय हो। वास्तव में यहाँ के तपस्वी असीम ज्ञान और भक्ति के भण्डार हैं। तुम अवश्य उनके दर्शन करो। इस वन का वातावरण भी तुम्हारे सर्वथा अनुकूल है। इसमें तुम लोग भ्रमण करके अपने वनवासकाल को सार्थक करो।"