सोमवार, 10 दिसंबर 2012

महर्षि अत्रि का आश्रम - अयोध्याकाण्ड (25)



जब भरत चित्रकूट से वापस अयोध्या लौट गये तो राम ने लक्ष्मण से कहा, "हे सौमित्र! माताएँ वापस चली गईं इसलिये मेरा हृदय उदास तथा उद्विग्न हो गया है। इस स्थान के साथ उन सबकी स्मृति जुड़ गई है। मुझे बारम्बार उनकी स्मृति सताने लगी है। अतः मेरा विचार है कि अब हम इस स्थान का परित्याग कर दें और अन्यत्र कहीं जाकर निवास करें।"


इस प्रकार सीता और लक्ष्मण से अपने विचार का समर्थन प्राप्त करके उन्होंने चित्रकूट का परित्याग कर दिया और वहाँ से चल पड़े। चलते-चलते वे महर्षि अत्रि के आश्रम में जा पहुँचे। उन्होंने परमतपस्वी वृद्ध महर्षि को प्रणाम किया तथा अपना परिचय दिया। महर्षि अत्रि ने उनका स्नेहपूर्वक स्वागत किया। फिर महर्षि अत्रि ने अपनी वृद्धा पत्नी अनुसूया को मिथिलानरेश की राजकुमारी तथा अयोध्या की ज्येष्ठ पुत्रवधू सीता से परिचय करवाया तथा उनका यथोचित सत्कार करने के लिये कहा।

इस पर राम ने भी सीता से कहा, "सीते! माता के समान स्नेहमयी अनुसूया देवी के चरण स्पर्श करो।"

सीता ने अनुसूया के चरण स्पर्श किये और उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया।

अनुसूया बोलीं, "सीता! तुमने राजप्रासाद के ऐश्वर्य का परित्याग कर अपने पति के साथ वन में, जहाँ पर भाँति भाँति के कष्टों को झेलना पड़ता है, रहने का का जो निश्चय किया है वह तुम्हारा महान त्याग है। मैं तुम्हारे त्याग से अत्यन्त प्रसन्न हूँ। तुमने तीनों लोकों में नारी के पतिव्रत धर्म की महिमा को महिमामंडित कर दिया है। हे सुभगे! जो अपने पति के गुण-अवगुणों का विचार किये बिना उसे ईश्वर के समान सम्मान देती है और प्रत्येक दुःख-सुख में उसका अनुसरण करती है उस स्त्री के चरणों पर स्वर्ग स्वयं न्यौछावर हो जाता है। पति चाहे कितना ही कुरूप, दुश्चरित्र, क्रोधी और निर्धन क्यों न हो, वह पत्नी के लिये सदैव श्रद्धेय है। उसके जैसा कोई दूसरा सम्बन् नहीं होता। पति की सच्ची सेवा ही स्वर्ग का मार्ग प्रशस्त करती है। जो स्त्री अपने पति में दुर्गुण देखती है, उस पर अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिये उसके साथ नित्य कलह करती है तथा उसकी अवमानना और उसकी आज्ञाओ की अवहेलना करती है, उसे इस लोक में अपयश तो मिलता ही है पर मृत्यु के पश्चात् नर्क को भी जाती है। तुम स्वयं समस्त शास्त्रों को जानने वाली हो तथा अपने पति की अनुगामिनी हो अतः तुम्हें तो किसी प्रकार की शिक्षा देने की आवश्यकता ही नहीं है। तुमने अपने कर्तव्य पालन करके तीनों लोकों में कीर्ति प्राप्त की है। मेरा आशीर्वाद है कि तुम्हारी बुद्धि सदा इसी प्रकार निर्मल बनी रहे।"

देवी अनुसूया के इन उपदेशों को सुनकर सीता बोली, "हे आर्या! आपके उपदेश मेरे लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण है। मेरी माता और सास ने भी मुझे यही शिक्षा दी है कि पति स्त्री का गुरु, देवता और सर्वस्व होता है। अब आपके द्वारा दी गई शिक्षा को भी मैंने हृदयंगम कर लिया हैं। मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि पति का अनुगमन ही मेरे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है और मैं कभी इस मार्ग से विचलित नहीं होउँगी।"

सीता के वचनों को सुनकर अनुसूया ने कहा, "पुत्री! मैं तुझसे बहुत प्रसन्न हूँ। अपनी इच्छानुसार कोई वर माँग। मैं वनवासिनी अवश्य हूँ किन्तु दैवी शक्ति से किसी भी मानव की मनोकामना पूर्ण करने में समर्थ भी हूँ।"

सीता बोलीं, "माता! मैं पूर्णतया सन्तुष्ट हूँ। आपने मुझ पर असीम कृपा की है, यही मेरे लिये यथेष्ठ है।"

इस पर प्रसन्न होकर अनुसूया ने कहा, "हे जानकी! तुम सदा सौभाग्वती रहो। यद्यपि तुमने कुछ भी नहीं माँगा है तथापि मैं तुम्हें यह दिव्य माला देती हूँ। इस माला के फूल कभी नहीं कुम्हलायेंगे। ये दिव्य वस्त्र भी स्वीकार करो। ये न कभी मैले होंगे और न फटेंगे। यह सुगन्धित अंगराग भी मैं तुम्हें देती हूँ जो कभी फीका नहीं पड़ेगा।"

अनुसूया ने तीनों वस्तुएँ सीता को देकर उन्हें अपने सम्मुख ही धारण कराया। उनके चरणों में सिर नवाकर सीता रामचन्द्र के पास गईं और उन्हें माता अनुसूया के दिये उपहार दिखाये। सन्ध्या को सबने एक साथ बैठकर सन्ध्योपासना की। तत्पश्चात् अनुसूया सीता को चंद्र की शुभ्र ज्योत्नायुक्त रात्रि में वन की शोभा दिखाने के लिये ले गईं। फिर आध्यात्मिक चर्चायें हुईं। अन्त में सभी ने मुनि के आश्रम में विश्राम किया।

प्रातःकाल जब राम ने अत्रि ऋषि से विदा लिया तो वे बोले, "हे रघुनन्दन! इन वनों में मनुष्यों को अनेक प्रकार के कष्ट देने वाले भयंकर राक्षस निवास करते हैं जिनके कारण अनेक तपस्वियों को असमय ही काल कालवित हो जाना पड़ा है। मेरी इच्छा है कि तुम इनका विनाश करके तपस्वियों की रक्षा करो।"

राम ने महर्षि की आज्ञा को शिरोधार्य किया तथा उपद्रवी राक्षसों को नष्ट करने का वचन दिया। फिर सीता तथा लक्ष्मण के साथ वहाँ से दण्डक वन के लिये प्रस्थान कर गये।
||वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड समाप्त ||

मंगलवार, 15 मई 2012

भरत का अयोध्या लौटना - अयोध्याकाण्ड (24)



अयोध्या के अत्यन्त चतुर मन्त्री जाबालि ने कहा, "हे रामचन्द्र! सारे नाते मिथ्या हैं। संसार में कौन किसका बन्धु है? जीव अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही नष्ट होता है। सत्य तो यह है कि इस संसार में कोई किसी का सम्बन्धी नहीं होता। सम्बन्धों के मायाजाल में फँसकर स्वयं को विनष्ट करना बुद्धिमानी नहीं है। आप पितृऋण के मिथ्या विचार को त्याग दें और राज्य को स्वीकार करें। स्वर्ग-नर्क, परलोक, कर्मों का फल आदि सब काल्पनिक बातें हैं। जो प्रत्यक्ष है, वही सत्य है। परलोक की मिथ्या कल्पना से स्वयं को कष्ट देना आपके लिये उचित नहीं है।"
राम ने भरत को हृदय से लगा लिया और कहा, "भैया भरत! तुम तो अत्यंत नीतिवान हो। क्या तुम समझते हो कि मुझे राज्य के निमित्त पिता के वचनों को भंग कर देना चाहिये? क्या धर्म से पतित होना उचित है? जो कुछ भी हुआ उसमें तुम्हारा कोई भी दोष नहीं है। तुम्हें दुःखी और लज्जित होने की किंचित मात्र भी आवश्यकता नहीं है। माता कैकेयी की निन्दा करना भी उचित नहीं है क्योंकि उन्होंने पिताजी की अनुमति से ही वर माँगे थे। मेरे लिये माता कैकेयी और माता कौसल्या दोनों ही समान रूप से सम्माननीय हैं। तुम्हें ज्ञात है कि मैं पिताजी की आज्ञा का उल्लंघन कदापि नहीं कर सकता। पिताजी ने स्वयं ही तुम्हें राज्य राज्य प्रदान किया है, अतः उसे ग्रहण करना तुम्हारा कर्तव्य है। पिताजी के परलोक सिधार जाने का मुझे अत्यंत दुःख है। मुझ अभागे को उन्होंने अपनी सेवा, अन्तिम दर्शन और दाह संस्कार के अवसर से वंचित कर दिया।"

कहते-कहते राम के नेत्रों से अश्रुधारा बह चली।

फिर उन्होंने सीता से जाकर कहा, "प्रिये! पूज्य पिताजी स्वर्गलोक सिधार गये।"

तत्पश्चात् लक्ष्मण को संबोधित करते हुये बोले, "भैया! अभी-अभी मुझे यह समाचार भरत से प्राप्त हुआ है कि हम पितृविहीन हो गये हैं।"

इस सूचना को सुनते ही सीता और लक्ष्मण बिलख-बिलख कर रो पड़े।

इसके पश्चात् राम ने प्रयासपूर्वक धैर्य धारण किया और सीता तथा लक्ष्मण के साथ मन्दाकिनी के तट पर जाकर पिता को जलांजलि दी। वक्कल चीर धारण किया, हंगुदी के गूदे का पिण्ड बनाया और उस पिण्ड को कुशा पर रख कर उनका तर्पण किया। पिण्डदान तथा स्नानादि से निवृत होने के पश्चात् वे अपनी कुटिया में लौटे और भाइयों को भुजाओं में भर कर रोने लगे।

उनके आर्तनाद को सुनकर गुरु वसिष्ठ तथा सभी रानियाँ वहाँ आ पहुँचीं। विलाप करने में वे रानियाँ भी सम्मिलित हो गईं। फिर प्रयासपूर्वक धैर्य धारण करके राम, लक्ष्मण और सीता ने सब रानियों एवं गुरु वसिष्ठ के चरणों की वन्दना की। कुछ काल पश्चात् सभी लोग रामचन्द्र को घेर कर बैठ गये और महाराज दशरथ के विषय में चर्चा करने लगे। इस प्रकार वह रात्रि व्यतीत हो गई।

प्रातःकाल संध्या-उपासना आदि से निवृत होकर, राजगुरु तथा मन्त्रीगण को साथ लेकर, भरत राम के पास आये और बोले, "हे रघुकुलशिरोमणि! प्रतिज्ञाबद्ध होने के कारण पिताजी ने अयोध्या का राज्य मुझे प्रदान किया था। उस राज्य को अब मैं आपको समर्पित करता हूँ। कृपा करके आप इसे स्वीकार करें।"

राम ने कहा, "भरत! मैं जानता हूँ कि पिता की मृत्यु और मेरे वनवास से तुम अत्यंत दुःखी हो। किन्तु विधि के विधान को भला कौन टाल सकता है। किसी को भी इसके लिये दोष देने की आवश्यकता भी नहीं है। संयोग के साथ वियोग का और जन्म के साथ मृत्यु का सम्बन्ध तो सदा से ही चला आया है। हमारे पिता सहस्त्रों यज्ञ, दान तप आदि करने के पश्चात् ही स्वर्ग सिधारे हैं। इसलिये उनके लिये शोक करना व्यर्थ है। तुम्हें पिताजी की आज्ञा मानकर अयोध्या का राज्य करना चाहिये और मुझे भी उनकी आज्ञा का पालन करते हुये वन में निवास करना चाहिये। ऐसा न करने से मुझे और तुम्हें दोनों को ही नरक की यातना भुगतनी पड़ेगी।"

राम के ये तर्कपूर्ण वचन अकाट्य थे।

इन वचनों को सुनकर भरत ने हाथ जोड़कर कहा, "हे आर्य! इस दुर्घटना के समय मैं अपने नाना के घर में था। मेरी माता की मूर्खता के कारण ही यह सारा अनिष्ट हुआ। मैं भी धर्माधर्म का कुछ ज्ञान रखता हूँ इसीलिये मैं आपके अधिकार का अपहरण कदापि नहीं कर सकता। आप क्षत्रिय हैं और क्षत्रिय का धर्म जटा धारण करके तपस्वी बनना नहीं अपितु प्रजा का पालन करना है। आपसे आयु, ज्ञान, विद्या आदि सभी में छोटा होते हुये भी मैं सिंहासन पर कैसे बैठ सकता हूँ? इसीलिये आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप राजसिंहासन पर बैठकर मेरे माता को लोक निन्दा से और पिताजी को पाप से बचाइये अन्यथा मुझे भी वन में रहने की अनुमति दीजिये।"

रामचन्द्र ने भरत को फिर से समझाते हुये कहा, "पिताजी ने तुम्हें राज्य प्रदान किया है और मुझे चौदह वर्ष के लिये वनवास की आज्ञा दी है। जिस प्रकार मैं उनके वचनों पर श्रद्धा रखकर उनकी आज्ञा का पालन कर रहा हूँ, उसी प्रकार तुम भी उनकी आज्ञा को अकाट्य मानकर अयोध्या पर शासन करो। उनके वचनों की यदि हम अवहेलना करेंगे तो उनकी आत्मा को क्लेश पहुँचेगा। तुम्हें राजकार्य में समुचित सहायता देने के लिये शत्रुघ्न तुम्हारे साथ हैं ही। पिताजी को अपनी प्रतिज्ञा के ऋण से मुक्ति दिलाना हम चारों भाइयों का कर्तव्य है।"

रामचन्द्र के वचनों को सुनकर अयोध्या के अत्यन्त चतुर मन्त्री जाबालि ने कहा, "हे रामचन्द्र! सारे नाते मिथ्या हैं। संसार में कौन किसका बन्धु है? जीव अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही नष्ट होता है। सत्य तो यह है कि इस संसार में कोई किसी का सम्बन्धी नहीं होता। सम्बन्धों के मायाजाल में फँसकर स्वयं को विनष्ट करना बुद्धिमानी नहीं है। आप पितृऋण के मिथ्या विचार को त्याग दें और राज्य को स्वीकार करें। स्वर्ग-नर्क, परलोक, कर्मों का फल आदि सब काल्पनिक बातें हैं। जो प्रत्यक्ष है, वही सत्य है। परलोक की मिथ्या कल्पना से स्वयं को कष्ट देना आपके लिये उचित नहीं है।"

जाबालि के इस प्रकार कहने पर राम बोले, "मन्त्रिवर! आपके ये नास्तिक विचार मेरे हित के लिये उचित नहीं हैं वरन ये मेरे लिये अहितकारी है। मैं सदाचार और सच्चरित्रता को अत्यधिक महत्व देता हूँ। यदि राजा ही सत्य के मार्ग से विचलित होगा तो प्रजा भी उसका ही अनुसरण करेगी और कुपथगामी हो जायेगी। मैं आपके इस अनुचित मन्त्रणा को स्वीकार करने में असमर्थ हूँ। मुझे तो आश्चर्य के साथ ही साथ दुःख इस बात का है कि परम आस्तिक तथा धर्मपरायण पिताजी ने आप जैसे नास्तिक व्यक्ति को मन्त्रीपद कैसे प्रदान किया।"

राम के इन रोषपूर्ण वचनों को सुनकर जाबालि ने कहा, "राघव! मैं नास्तिक नहीं हूँ। भरत के बारम्बार किये गये आग्रह को आपके द्वारा अस्वीकार करने के कारण ही मैंने ये बाते कहीं थीं। मेरा उद्देश्य केवल आपको लौटा ले जाना ही था। आपको लौटा ले जाने के लिये मेरी मन्द बुद्धि में इन बातों के अतिरिक्त और कोई उपाय ही नहीं सूझा।"

किसी भी प्रकार से राम ने भरत की प्रार्थना को स्वीकार नहीं किया।

विवश होकर भरत ने हाथ जोड़कर कहा, "हे तात! मैंने अटल प्रतिज्ञा की है कि मैं आपके राज्य को ग्रहण नहीं करूँगा। यदि आप पिताजी की आज्ञा का पालन ही करना चाहते हैं तो अपने स्थान पर मुझे वन में रहने की अनुमति दीजिये। आपके बदले मेरे वन में रहने से भी पिता को माता के ऋण से मुक्ति मिल जायेगी।"

इन स्नेहपूर्ण वचनों को सुनकर राम मन्त्रियों और पुरवासियों की ओर देखकर बोले, "जो कुछ भी हो चुका है उसे न तो मैं बदल सकता हूँ और न ही भरत। वनवास की आज्ञा मुझे हुई है, न कि भरत को। मैं माता कैकेयी के कथन और पिताजी के कर्म दोनों को ही उचित समझता हूँ। मातृभक्त, पितृभक्त और गुरुभक्त होने के साथ ही साथ भरत सर्वगुण सम्पन्न भी हैं। अतः उनका ही राज्य करना उचित है।"

जब राम किसी भी प्रकार से अयोध्या लौटने के लिये राजी नहीं हुए तो भरत ने रोते हुये कहा, "भैया! मैं जानता हूँ कि आपकी प्रतिज्ञा अटल है, किन्तु यह भी सत्य है कि अयोध्या का राज्य भी आप ही का है। अतः आप अपनी चरण पादुकाएँ मुझे प्रदान करें। मैं इन्हें अयोध्या के राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित करूँगा और स्वयं, वक्कल धारण करके ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए, नगर के बाहर रहकर आपके सेवक के रूप में राजकाज चलाउँगा। चौदह वर्ष पूर्ण होते ही यदि आप अयोध्या नहीं पहुँचे तो मैं स्वयं को अग्नि में भस्म कर दूँगा। यही मेरी प्रतिज्ञा है।"

रामचन्द्र जी ने भरत को हृदय से लगाकर उन्हें अपनी पादुकाएँ दे दीं। फिर शत्रुघ्न को समझाते हुये बोले, "भैया! माता कैकेयी को कभी अपशब्द कहकर उनका अपमान मत करना। इस बात को कभी न भूलना कि वे हम सबकी पूज्य माता हैं। तुम्हें मेरी और सीता की शपथ है।"

फिर माताओं को धैर्य बँधा कर सम्मानपूर्वक सबको विदा किया।

श्री राम की चरण पादुकाओं के साथ भरत और शत्रुघ्न रथ पर सवार हुये। उनके पीछे अन्य अनेक रथों पर माताएँ, गुरु, पुरोहित, मन्त्रीगण तथा अन्य पुरवासी चले। सबसे पीछे सेना चली। उदास मन लिये हुए सब लोग तीन दिन में अयोध्या पहुँचे।

अयोध्या पहुँच जाने पर भरत ने गुरु वसिष्ठ से कहा, "गुरुदेव! आपको तो ज्ञात ही हैं कि अयोध्या के वास्तविक नरेश राम हैं। उनकी अनुपस्थिति में उनकी चरण पादुकाएँ सिंहासन की शोभा बढ़ायेंगी। मैं नगर से दूर नन्दिग्राम में पर्णकुटी बनाकर निवास करूँगा और वहीं से राजकाज का संचालन करूँगा।"

फिर वे नन्दिग्राम से ही राम के प्रतिनिधि के रूप में राज्य का कार्य संपादन करने लगे|

बुधवार, 9 मई 2012

राम-भरत मिलाप - अयोध्याकाण्ड (23)




अनेक प्राकृतिक शोभा वाले दर्शनीय स्थल चित्रकूट पर्वत पर स्थित थे अतः चित्रकूट में निवास करते हुये राम उन दर्शनीय स्थलों का सीता को घूम-घूम कर उनका दर्शन कराने लगे। भाँति-भाँति की बोली बोलने वाले पक्षियों, नयनाभिराम पर्वतमालाओं तथा उनकी शिखरों, विभिन्न प्रकार के फलों से लदे हुये वृक्षों को देखकर सीता अत्यन्त प्रसन्न हुईं। ऐसे ही जब एक दिन राम प्राकृतिक छटा का आनन्द ले रहे थे तो सहसा उन्हें चतुरंगिणी सेना का कोलाहल सुनाई पड़ा और वन्य पशु इधर-उधर भागते हुए दृष्टिगत हुए। इस पर राम लक्ष्मण से बोले, "हे सुमित्रानन्दन! ऐसा प्रतीत होता है कि इस वन-प्रदेश में वन्य पशुओं के आखेट हेतु किसी राजा या राजकुमार का आगमन हुआ है। हे वीर! तुम जाकर इसका पता लगओ।"

लक्ष्मण तत्काल एक ऊँचे साल वृक्ष पर चढ़ गये और इधर-उधर दृष्टि दौड़ाने लगे। उन्होंने देखा, उत्तर दिशा से एक विशाल सेना हाथी घोड़ों और अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित सैनिकों के साथ चली आ रही है जिसके आगे-आगे अयोध्या की पताका लहरा रही थी। तत्काल ही लक्ष्मण समझ गये कि वह अयोध्या की सेना है।

राम के पास आकर क्रोध से काँपते हुये लक्ष्मण ने कहा, "भैया! कैकेयी का पुत्र भरत सेना लेकर चला आ रहा है। अवश्य ही वह वन में अकेला पाकर हम लोगो का वध कर देना चाहता है ताकि निष्कंटक होकर अयोध्या का राज्य कर सके। आज मैं इस षड़यन्त्रकारी भरत को उसके पापों का फल चखाउँगा। भैया! चलिये, कवचों से सुसज्जित होकर पर्वत की चोटी पर चलें।"

राम बोले, "सौमित्र! तुम ये कैसी बातें कर रहे हो? धनुष तान कर खड़े होने की कोई आवश्यकता नही है। भरत तो मुझे प्राणों से भी प्यारा है। भला भाई का स्वागत अस्त्र-शस्त्रों से किया जाता है? अवश्य ही वह मुझे अयोध्या लौटा ले जाने के लिये आया होगा। भरत में और मुझमें कोई अंतर नहीं है, इसलिये तुमने जो कठोर शब्द भरत के लिये कहे हैं, वे वास्तव में मेरे लिये कहे हैं। स्मरण रखो, किसी भी स्थिति में पुत्र पिता के और भाई-भाई के प्राण नहीं लेता।"

राम के भर्त्सना भरे शब्द सुनकर लक्ष्मण बोले, "हे प्रभो! सेना में पिताजी का श्वेत छत्र के नहीं है। इसी कारण ही मुझे यह आशंका हुई थी। मुझे क्षमा करें।"

पर्वत के निकट अपनी सेना को छोड़कर भरत-शत्रुघ्न राम की कुटिया की ओर चले। उन्होंने देखा, यज्ञवेदी के पास मृगछाला पर जटाधारी राम वक्कल धारण किये बैठे हैं। वे दौड़कर रोते हुये राम के पास पहुँचे। उनके मुख से केवल 'हे आर्य' शब्द निकल सका और वे राम के चरणों में गिर पड़े। शत्रुघ्न की भी यही दशा थी।

राम ने दोनों भाइयों को पृथ्वी से उठाकर हृदय से लगा लिया और पूछा, "भैया! पिताजी तथा माताएँ कुशल से हैं न? कुलगुरु वसिष्ठ कैसे हैं? तुमने तपस्वियों जैसा वक्कल क्यों धारण कर रखा है?"

रामचन्द्र के वचन सुनकर अश्रुपूरित भरत बोले, "भैया! हमारे परम तेजस्वी धर्मपरायण पिता स्वर्ग सिधार गये। मेरी दुष्टा माता ने जो पाप किया है, उसके कारण मुझ पर भारी कलंक लगा है और मैं किसी को अपना मुख नहीं दिखा सकता। अब मैं आपकी शरण में आया हूँ। आप अयोध्या का राज्य सँभाल कर मेरा उद्धार कीजिये। सम्पूर्ण मन्त्रिमण्डल, तीनों माताएँ, गुरु वसिष्ठ आदि सब यही प्रार्थना लेकर आपके पासे आये हैं। मैं आपका छोटा भाई हूँ, पुत्र के समान हूँ, माता के द्वारा मुझ पर लगाये गये कलंक को धोकर मेरी रक्षा करें।"

इतना कहकर भरत रोते हुये फिर राम के चरणों पर गिर गये और बार-बार अयोध्या लौटने के लिये अनुनय विनय करने लगे|

शनिवार, 5 मई 2012

दशरथ की अन्त्येष्टि - अयोध्याकाण्ड (22)


दूसरे दिन प्रातःकाल गुरु वसिष्ठ ने शोकाकुल भरत को धैर्य बंधाते हुये महाराज दशरथ की अन्त्येष्टि करने के लिये प्रेरित किया। राजगुरु की आज्ञा का पालन करने के लिये प्रयास करके भरत ने हृदय में साहस जुटाया और अपने स्वर्गीय पिता का प्रेतकर्म प्रारम्भ किया। तैलकुण्ड में रखे गये शव को निकाल कर अर्थी पर लिटाया गया। अर्थी पर पिता का शव देखकर भरत का हृदय चीत्कार कर उठा। रो-रो कर वे कहने लगे, "हा पिताजी! आप मुझे छोड़ कर चले गये। आपने तनिक भी विचार नहीं किया कि अनाथ होकर मैं किसके आश्रय में जियूँगा। आप मुझसे बात नहीं कर रहे हैं क्योंकि आप मुझे दोषी समझते हैं। आप स्वर्ग सिधार गये, भैया राम वन को चले गये, अब इस अयोध्या का राज्य कौन सँभालेगा?"


भरत को इस प्रकार विलाप करते हुये देख महर्षि वसिष्ठ ने कहा, "वत्स! अब शोक त्यागकर महाराज का प्रेतकर्म आरम्भ करो।"

उनके ऐसा आदेश देने पर भरत ने अर्थी को रत्नों से सुसज्जित कर ऋत्विज पुरोहितों तथा आचार्यों के निर्देशानुसार अग्निहोत्र किया। भरत, शत्रुघ्न और वरिष्ठ मन्त्रीगण अर्थी को कंधे पर उठाकर श्मशान की ओर चले। रोती-बिलखती प्रजा भी शवयात्रा में पीछे-पीछे चलने लगी। अर्थी के आगे निर्धनों के लिये सोना, चाँदी, रत्न आदि लुटाये जा रहे थे। सरयू तट पर चन्दन, गुग्गुल आदि से चिता बनाया गया और शव को उस पर लिटाया गया। सभी रानियाँ विलाप करके रोने लगीं। भरत ने चिता में अग्नि प्रज्वलित किया और सत्यपरायण महात्मा दशरथ का नश्वर शरीर का पंचभूत में विलय हो गया।

तेरहवें दिन जब भरत अपने पिता के अंतिम संस्कार से निवृत हुये तो मन्त्रियों ने उनसे निवेदन करते हुये कहा, "हे रघुकुल भूषण! दिवंगत महाराज आपको राजा बना गये हैं इसलिये अब आप न्यायपूर्वक हमारे राजा हैं। अतः अब आप सिंहासनारूढ़ होने की कृपा करें।"

इस पर भरत बोले, "सदा से रघुकुल की रीति रही है कि पिता के स्थान पर ज्येष्ठ पुत्र ही राजा होता है। इसलिये इस सिंहासन पर मेरा कोई अधिकार नहीं है, इस पर केवल धर्मात्मा राम का ही अधिकार है। मैंने निश्चय किया है कि मैं वन से राम को लौटा लाउँगा उनके स्थान पर मैं स्वयं चौदह वर्ष पर्यंत वन में रहूँगा। अतः आप सभी तत्काल, भैया राम को वापस लाने के लिये, वन में जाने की तैयारी करें।"

भरत के इस कथन ने सबमें एक नया उत्साह उत्पन्न कर दिया। उनके मन में राम के लौटने की आशा प्रबल होने लगी।

समस्त तैयारियाँ पूर्ण होने पर भरत, शत्रुघ्न, तीनों माताएँ, मन्त्रीगण, दरबारी आदि, चतुरंगिणी सेना के साथ, वन की ओर चले। प्रजाजन उत्साह में भर कर राम और भरत की जय-जयकार करते जाते थे।राजा गुह के नगर श्रंगवेरपुर के निकट गंगा तट पर उन्होंने अपना पड़ाव डाला।

विशाल सेना के साथ भरत के आने का समाचार निषादराज गुह तक भी पहुँचा। उन्होंने अपने सेनापतियों को बुलाकर कहा, "सेनापतियों! आप लोगों को अच्छी प्रकार से विदित है कि रामचन्द्र हमारे मित्र हैं। हमें ज्ञात नहीं है कि भरत किस उद्देश्य से सेना लेकर आये हैं। अतः अपनी सेना को तुम लोग सतर्क करके इधर उधर छिपा दो। पाँच सौ नावों में सौ-सौ अस्त्र शस्त्रधारी सैनिक भी तैयार रहें। यदि भरत राम के पास निष्कपट भाव से जाना चाहे तो जाने दो, अन्यथा उन सबको मार्ग में ही मृत्यु के मुख में पहुँचा दो।"

इस प्रकार से सेनापतियों को सावधान करने के पश्चात् वे स्वागत की सामग्री ले भरत के पास पहुँचे और बोले, "हे राघव! बिना किसी पूर्व सूचना के आपके यहाँ पहुँच जाने के कारण मैं आपके यथोचित सत्कार व्यवस्था नहीं कर पाया। मैं इसके लिये क्षमाप्रार्थी हूँ। आपसे निवेदन है कि रात्रि विश्राम यहीं करें और हमारा रूखा सूखा भोजन स्वीकार कर करके हमें धन्य करें।"

गुह के प्रेमयुक्त वचनों को सुनकर भरत ने कहा, "हे निषादराज! मैं ऋषि भरद्वाज के आश्रम में जाना चाहता हूँ, क्योंकि भैया राम वहीं गये हैं। आपकी मुझ पर बड़ी कृपा होगी यदि आप मुझे कुछ पथप्रदर्शक प्रदान करें।"

निषादराज बोले, "प्रभो! आप चिन्ता न करें। मैं और मेरे सैनिक आपका पथप्रदर्शन करेंगे। किन्तु आप इतनी विशाल सेना को साथ लेकर रामचन्द्र के पास क्यों जा रहे हैं?"

निषाद के हृदय की शंका का अनुमान कर भरत बोले, "निषादराज! मैं भैया राम को वन से लौटाकर उनका राज्य उन्हें सौंपना चाहता हूँ क्योंकि वे मेरे बड़े भाई और पिता के तुल्य हैं। मेरे इस कार्य के लिये मेरी माताएँ और मन्त्री आदि भी मेरा साथ दे रहे हैं।"

भरत के वचन सुनकर गुह को संतोष हुआ। समस्त जनों सहित भरत ने वहीं रात्रि-विश्राम किया। प्रातःकाल गुहराज की आज्ञा से गंगा के किनारे पर सैंकड़ों नौकाओं का प्रबन्ध कर दिया गया और उनमें सवार हो कर सब गंगा पार उतर गये।

वे सभी महर्षि भरद्वाज के आश्रम में पहुँचे। उनका यथोचित सत्कार करने के पश्चात् महामुनि ने भरत से वन में आगमन का कारण पूछा।

भरत ने हाथ जोड़कर कहा, "महामुने! मैं अपने भैया राम का दास हूँ। मेरी माता कैकेयी ने जो कुछ किया है मैं उसके सर्वथा विरुद्ध हूँ। मैं भैया राम के पास जाकर उनसे क्षमा याचना करना चाहता हूँ। मैं उनसे अयोध्या लौटने की प्रार्थना करना चाहता हूँ कि वे वापस लौटकर अपना राज्य सँभाले।"

भरत की बात सुनकर मुनि बोले, "भरत! तुम वास्तव में महान हो। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ कि तुम तीनों लोकों में यशस्वी होओ। आजकल राम सीता और लक्ष्मण के साथ चित्रकूट में निवास करते हैं। तुम कल प्रातः वहाँ चले जाना। आज की रात्रि यहीं विश्राम करो।"

प्रातःकाल जब चित्रकूट जाने के लिये भरत मुनि भरद्वाज से अनुमति लेने पहुँचे तो उन्होंने भरत को समझाते हुये कहा, "भरत! तुम अपनी माता के प्रति दुराग्रह न रखना, इसमें उनका कोई दोष नहीं है। कैकेयी द्वारा किये गये कार्य में परमात्मा की प्रेरणा है ताकि वन में असुरों और राक्षसों का राम के हाथों विनाश हो सके।"

भरत अपनी माताओं एवं समस्त साथियों के साथ महर्षि से विदा लेकर चले और मन्दाकिनी के तट पर पहुँचे। वहाँ ठहरकर भरत ने मन्त्रियों से कहा, "प्रतीत होता है कि भैया की कुटिया यहाँ कहीं निकट ही है। सेना को साथ लेकर आगे जाने से यहाँ बसे हुये आश्रमवासियों की शान्ति और तपस्या में बाधा पड़ेगी। इसलिय आगे मैं सेना के साथ नहीं जाना चाहता। अतः तुम गुप्तचरों को भेजकर राम की कुटिया का पता लगवाओ।"

मन्त्रियों की आज्ञा पाकर चतुर गुप्तचर इस कार्य के लिये चल पड़े|

मंगलवार, 1 मई 2012

भरत-शत्रुघ्न की वापसी - अयोध्याकाण्ड (21)


गत रात्रि के स्वप्न और इस प्रकार दूतों के आगमन ने भरत के मन में उठने वाले अनिष्ट की आशंका को और प्रबल कर दिया। किन्तु उनके बार बार पूछने पर भी दूतों ने किसी भी अशुभ समाचार के विषय में कुछ नहीं बताया। भरत तथा शत्रुघ्न ने शीघ्रता पूर्वक महाराज कैकेय से विदा लिया और दूतों के साथ अयोध्या की ओर प्रस्थान किया। अनेक नदियों तथा दुर्गम घाटियों को पार करके भरत अयोध्या की सीमा में प्रविष्ट हुये। वहाँ का दृष्य देखकर वे बोले, "हे दूत! अयोध्या की ये वाटिकाएँ जन-शून्य क्यों हैं? नगर में प्रतिदिन होने वाले प्रजाजनों का तुमुलनाद क्यों सुनाई नहीं दे रहा है? ऐस क्यों प्रतीत हो रहा है जैसे आज अयोध्या श्रीहीन हो गई हो? क्या यहाँ किसी प्रकार की अवांछनीय घटना घटित हुई है?"


दूतों ने उनके इन प्रश्नों का कुछ भी उत्तर नहीं दिया। आशंकित भरत राजप्रासाद में पहुँचे। वे सबसे पहले पिता के दर्शन करने के लिये उनके भवन की ओर चले। उन्हें वहाँ न पाकर वे अपनी माता कैकेयी के कक्ष में पहुँचे। उन्हें देख कर मुस्कुराती हुई कैकेयी स्वर्ण के आसन से उठी। भरत ने माता का चरण स्पर्श किया। कैकेयी ने उन्हें हृदय से लगाकर आशीर्वाद दिया और अपनी माता और पिता के कुशल समाचार पूछा।

कैकेय की कुशलता के विषय में जान लेने के पश्चात् वह बोली, "वत्स! मार्ग में तुम्हें कोई कष्ट तो नहीं हुआ?"

उसके इस प्रश्न का कुछ भी उत्तर न देकर भरत ने पूछा, "माता, मैं पिताजी के भवन से यहाँ आ रहा हूँ। वे वहाँ नहीं थे। मुझे बताइये वे कहाँ हैं?"

तटस्थ भाव से कैकेयी ने कहा, "हे पुत्र! तुम्हारे तेजस्वी पिता स्वर्ग सिधार गये।"

कैकेयी के मुख से इन शब्दों को सुनते ही भरत के हृदय को मर्मान्तक आधात लगा। वे बिलख-बिलख कर रोने लगे। फिर वे बोले, "अचानक अचानक यह कैसे हो गया? हाय! मैं कितना अभागा हूँ कि अन्तिम समय में उनके दर्शन भी न कर सका। धन्य हैं राम-लक्ष्मण जिन्होंने अन्तिम समय में पिताजी की सुश्रूषा की। पिताजी के बाद अब भैया राम ही मेरे आश्रय एवं पूज्य हैं। वे कहाँ हैं? माता! क्या अन्तिम समय में पिताजी ने मुझे याद किया था? मेरे लिये उन्होंने क्या सन्देश दिया है?"

भरत को सान्त्वना देती हुई कैकेयी बोले, "वत्स! तुम्हारे पिताजी ने तुम्हारे लिये कुछ भी सन्देश नहीं दिया। पाँच दिवस और पाँच रात्रि तक वे हा राम! हा लक्ष्मण! हा सीता! कह कर विलाप करते रहे और विलाप करते-करते ही परलोक सिधार गये।"

यह सुनकर भरत की पीड़ा और बढ़ गई और वे बोले, "क्या पिताजी के अन्तिम समय में भैया राम भी नहीं थे? क्या पिताजी को उनके वियोग में प्राण त्यागने पड़े? वे कहाँ चले गये थे?"

कैकेयी ने मुस्कुराते हुये कहा, "तुम्हारा बड़ा भाई राम तो, लक्ष्मण और सीता के साथ वक्कल पहन कर वन को चला गया है। मैं तुम्हें पूरी बात से अवगत कराती हूँ। तुम्हारे पिता ने राम के अभिषेक का निश्चय किया था। राम के अभिषेक की बात सुन कर मैंने महाराज से दो वर माँग लिये। प्रथम वर से तुम्हारे लिये अयोध्या का राज्य माँगा और द्वितीय वर से राम के लिये चौदह वर्ष का वनवास। राम के साथ सीता और लक्ष्मण भी स्वयं अपनी इच्छा से चले गये। उनके चले जाने पर तुम्हारे पिता विलाप करते-करते मृत्यु को प्राप्त हो गये। अब यह राज्य अब तुम्हारा है। अतः शोक को त्याग दो और निष्कंटक राज्य करो। तुम्हारे विरुद्ध विद्रोह करने वाला अब इस नगर में कोई भी नहीं रह गया है। मैंने पूरी व्यवस्था कर रखी है। तुम गुरु वशिष्ठ और मन्त्रियों को बुलाओ और अपना राज्यतिलक करवाओ।"

राम-लक्ष्मण के वनवास के विषय में और पिता की मृत्यु का कारण जान कर भरत का मन व्यथा से भर गया और साथ ही साथ उनका तन क्रोध से जल उठा। वे बोले, "हे पापिन माते! तुम रघुकुल का कलंक हो। मेरे भाइयों के वनवास और पिता की मृत्यु का कारण तुम्हारी दुष्टता ही है। तुम रघुकुल का नाश करने वाली नागिन हो। हे जड़बुद्धि! तुमने राम को वन क्यों भेजा? मुझे तो प्रतीत होता है कि पिताजी की भाँति माता कौसल्या और माता सुमित्रा भी पति और पुत्र वियोग में अपने प्राण त्याग देंगीं। राम भैया तो तुम्हारा मुझसे भी अधिक सम्मान करते थे। माता कौसल्या तुम्हारे साथ सहोदर भगिनी जैसा व्यवहार करती थीं। फिर तुमने इतना बड़ा अन्याय क्यों किया? हे पाषाणहृदये माता! जिन भाइयों और भाभी ने कभी दुःख नहीं देखा उन्हें इतना कठोर दण्ड देकर तुम्हें क्या मिल गया? भैया राम के वियोग में मैं पल भर भी नहीं रह सकता। क्या तुम इतना भी नहीं जानतीं कि सद्गुणों में मैं राम के चरणों की धूलि के बराबर भी नहीं हूँ। तुमने मेरे मस्तक पर बहुत बड़ा कलंक लगा दिया। मैं इसी क्षण तुम्हारा परित्याग कर देता किंतु तुम्हारे उदर से जन्म लेने के कारण ऐसा भी नहीं कर सकता। अस्तु, मैं यदि तुम्हें नहीं त्याग सकता तो क्या हुआ, अपने प्राण तो त्याग सकता हूँ। मैं विष खा लूँगा या वनों में राम को ढूँढते हुये प्राण दे दूँगा। यह तुमने कैसे भुला दिया कि इक्ष्वाकु कुल में सदा से ज्येष्ठ पुत्र ही राज्य करता आया है? मैं अभी वन जाकर राम को वापस बुला लाउँगा और उनका सिंहासन उन्हें सौंप दूँगा।"

इतना कहकर वे शत्रुघ्न सहित रोते-रोते कौसल्या के भवन की ओर चले दिये।

भरत और शत्रुघ्न ने माता कौसल्या का चरणस्पर्श किये। उन्हें आशीर्वाद देकर कौसल्या बोली, "वत्स! यह तो अच्छी बात है कि तुम्हें राज्य प्राप्त हो गया। किन्तु निर्दोष राम को वनवास देकर तुम्हारी माता को क्या मिला? मैंने निश्चय किया है कि तुम्हारे सिंहासन सँभालने के पश्चात् मैं भी वन चली जाउँगी।"

उनके इन शब्दों को सुनकर भरत ने रोते हुये कहा, "हे माता! आप मुझे क्यों दोष देती हैं? जो कुछ भी हुआ वह मेरे अनुपस्थिति में हुआ है। भैया के वियोग में तो मेरा हृदय फटा जा रहा है। उनके बिना अयोध्या का तो क्या, यदि त्रैलोक्य का राज्य भी कोई मुझे दे तो मैं नहीं लूँगा। राम के वनगमन में यदि मेरी लेशमात्र भी सहमति हो तो मुझे रौरव नर्क मिले। इसी समय भूमि फट जाये और मैं उसमें समा जाऊँ। यदि इस दुष्ट कार्य में मेरी सहमति हो तो मुझे वह दण्ड मिले जो घृणित पाप करने वाले पापी को मिलती है।"

यह कहकर रोते हुये भरत मूर्छित होकर कौसल्या के चरणों में गिर पड़े।

जब वे कुछ चैतन्य हुये तो कौसल्या बोली, "बेटा! इस प्रकार की बातें करके तुम मुझे क्यों दुःखी करते हो? क्या मैं तुम्हें और तुम्हारे हृदय को नहीं पहचानती?" और वे भरत को नाना प्रकार से सान्त्वना देने लगीं।

शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

राजा दशरथ की मृत्यु - अयोध्याकाण्ड (20)


श्रवण कुमार के वृत्तान्त को समाप्त करने के पश्चात् राजा दशरथ ने कहा, "कौशल्ये! मेरा अन्तिम समय अब निकट आ चुका है, मुझे अब इन नेत्रों से कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा। राम को अब मैं कभी नहीं देख सकूँगा। मेरी समस्त इन्द्रियाँ मुझसे विदा हो रही हैं। मेरी चेतना शून्य हो रही है। हा राम! हा लक्ष्मण! हा पुत्र! हा सीता! हाय कुलघातिनी कैयेयी!"


कहते कहते राजा दशरथ की वाणी थम गई, श्वास उखड़ गये और उनके प्राण पखेरू उड़ गये।

उनके प्राण निकलते ही रानी कौसल्या पछाड़ खाकर भूमि पर गिर पड़ीं। सुमित्रा आदि रानियाँ तथा अन्य स्त्रियाँ भी सिर पीट-पीट कर विलाप करने लगीं। समस्त अन्तःपुर में करुणाजनक क्रन्दन गूँजने लगा। सदैव सुख-समृद्धि से भरे रहने वाला राजप्रासाद दुःख का आगार बन गया। चैतन्य होने पर कौसल्या ने अपने पति का मस्तिष्क अपनी जंघाओं पर रख लिया और विलाप करते हुये बोली, "हा दुष्ट कैकेयी! तेरी कामना पूरी हुई। अब तू सुखपूर्वक राज्य-सुख को भोग। पुत्र से तो मैं पहले ही विलग कर दी गई थी, आज पति से भी वियोग हो गया। अब मेरे लिये जीवित रहने का कोई अर्थ नहीं रहा। कैकेय की राजकुमारी ने आज कोसल का नाश कर दिया है। मेरे पुत्र और पुत्रवधू अनाथों की भाँति वनों में भटक रहे हैं। अयोध्यापति तो हम सबको छोड़कर चले गये, अब मिथिलापति भी सीता के दुःख से दुःखी होकर अधिक दिन जीवित नहीं रह पायेंगे। हा कैकेयी! तूने दो कुलों का नाश कर दिया।"

कौसल्या महाराज दशरथ के शरीर से लिपटकर फिर मूर्छित हो गई।

प्रातःकाल होने पर रोते हुये मन्त्रियों ने राजा के शरीर को तेल के कुण्ड में रख दिया। राम के वियोग से पूर्व में ही पीड़ित अयोध्यावासियों को महाराज की मृत्यु के समाचार ने और भी दुःखी बना दिया।

राजा की मृत्यु के समाचार प्राप्त होते ही समस्त व्यथित मन्त्री, दरबारी, मार्कण्डेय, मौद्गल, वामदेव, कश्यप तथा जाबालि वशिष्ठ के आश्रम में एकत्रित हुये। उन्होंने ऋषि वशिष्ठ से कहा, "हे महर्षि! राज सिंहासन रिक्त नहीं रह सकता अतः किसी रघुवंशी को सिंहासनाधीन कीजिये। शीघ्रातिशीघ्र अयोध्या के सिंहासन को सुरक्षित रखने का प्रबन्ध कीजिये अन्यथा किसी शत्रु राजा के मन में अयोध्या पर आक्रमण करने का विचार उठ सकता है।"

वशिष्ठ जी ने कहा, "आप लोगों का कथन सत्य है। स्वर्गीय महाराज के द्वारा भरत को राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया ही जा चुका है, अतः मैं भरत को उनके नाना के यहाँ से बुलाने के लिये अभी ही किसी कुशल दूत को भेजने की व्यवस्था करता हूँ।"

तत्काल राजगुरु वशिष्ठ ने सिद्धार्थ, विजय, जयंत तथा अशोकनन्दन नामक चतुर दूतों को बुलवा कर आज्ञा दी कि शीघ्र कैकेय जाओ और मेरा यह संदेश भरत और शत्रुघ्न को दो कि तुम्हें अत्यन्त आवश्यक कार्य से अभी अयोध्या बुलाया है। ध्यान रखो कि वहाँ पर राम, लक्ष्मण और सीता को वन भेजने का या महाराज की मृत्यु का वर्णन कदापि मत करना। कोई भी ऐसी बात उनसे मत कहना जिससे उन्हें किसी अनिष्ट की आशंका हो या उनके मन में किसी भी प्रकार के अमंगल का सन्देह उत्पन्न हो।

राजगुरु वशिष्ठ की आज्ञा पाते ही चारों दूतों ने वायु के समान वेग वाले अश्वों पर सवार होकर कैकेय देश के लिये प्रस्थान किया। वे मालिनी नदी पार करके हस्तिनापुर होते हुये पहले पांचाल और फिर वहाँ से शरदण्ड देश पहुँचे। वहाँ से वे इक्षुमती नदी को पार करके वाह्लीक देश पहुँचे। फिर विपाशा नदी पार करके कैकेय देश के गिरिव्रज नामक नगर में पहुँच गये।

जिस रात्रि ये दूत गिरिव्रज पहुँचे उसी रात्रि को भरत ने एक अशुभ स्वप्न देखा। निद्रा त्यागने पर स्वप्न का स्मरण करके वे अत्यन्त व्याकुल हो गये। अपने उस स्वप्न के विषय में एक मित्र को बताते हुये उन्होंने कहा, "हे सखा! रात्रि में मैंने एक भयानक स्वप्न देखा है। स्वप्न में पिताजी के सिर के बाल खुले थे। वे पर्वत से गिरते हुये गोबर से लथपथ थे और अंजलि से बार-बार तेल पी पी कर हँस रहे थे। मैंने उन्हें तिल और चाँवल खाते तथा शरीर पर तेल मलते देखा। इसके बाद मैंने देखा कि सारा समुद्र सूख गया है, चन्द्रमा टूटकर पृथ्वी पर गिर पड़ा है, पिताजी के प्रिय हाथी के दाँत टूट हये हैं, पर्वतमालाएँ परस्पर टकराकर चूर-चूर हो गई हैं और उससे निकलते हुये धुएँ से पृथ्वी और आकाश काले हो गये हैं। मैंने देखा कि राजा गधों के रथ में सवार होकर दक्षिण दिशा की ओर चले गये। ऐसा प्रतीत होता है कि यह स्वप्न किसी अमंगल की पूर्व सूचना है। मेरा मन अत्यन्त व्याकुल हो रहा है।"

भरत ने स्वप्न का वर्णन समाप्त किया ही था कि अयोध्या के चारों दूतों ने वहाँ प्रवेश कर उन्हें प्रणाम किया और गुरु वशिष्ठ का संदेश दिया, "हे राजकुमार! गरु वशिष्ठ ने अयोध्या की कुशलता का समाचार दिया है तथा आपसे तत्काल अयोध्या चलने का आग्रह किया है। कार्य अत्यावश्यक है अतः आप तत्काल अयोध्या चलें।

श्रवणकुमार की कथा - अयोध्याकाण्ड (19)


महाराज दशरथ ने कहा, "कौशल्ये! यह मेरे विवाह से पूर्व की घटना है। एक दिन सन्ध्या के समय अकस्मात मैं धनुष बाण ले रथ पर सवार हो शिकार के लिये निकल पड़ा। जब मैं सरयू के तट के साथ-साथ रथ में जा रहा था तो मुझे ऐसा शब्द सुनाई पड़ा मानो वन्य हाथी गरज रहा हो। उस हाथी को मारने के लिये मैंने तीक्ष्ण शब्दभेदी बाण छोड़ दिया। बाण के लक्ष्य पर लगते ही किसी जल में गिरते हुए मनुष्य के मुख से ये शब्द निकले - 'आह, मैं मरा! मुझ निरपराध को किसने मारा? हे पिता! हे माता! अब मेरी मृत्यु के पश्चात् तुम लोगों की भी मृत्यु, जल के बिना प्यासे ही तड़प-तड़प कर, हो जायेगी। न जाने किस पापी ने बाण मार कर मेरी और मेरे माता-पिता की हत्या कर डाली।'


"इससे मुझे ज्ञात हुआ कि हाथी की गरज सुनना मेरा भ्रम था, वास्तव में वह शब्द जल में डूबते हुये घड़े का था।

"उन वचनों को सुन कर मेरे हाथ काँपने लगे और मेरे हाथों से धनुष भूमि पर गिर पड़ा। दौड़ता हुआ मैं वहाँ पर पहुँचा जहाँ पर वह मनुष्य था। मैंने देखा कि एक वनवासी युवक रक्तरंजित पड़ा है और पास ही एक औंधा घड़ा जल में पड़ा है। मुझे देखकर क्रुद्ध स्वर में वह बोला - 'राजन! मेरा क्या अपराध था जिसके लिये आपने मेरा वध करके मुझे दण्ड दिया है? क्या यही मेरा अपराध यही है कि मैं अपने प्यासे वृद्ध माता-पिता के लिये जल लेने आया था? यदि आपके हृदय में किंचित मात्र भी दया है तो मेरे प्यासे माता-पिता को जल पिला दो जो निकट ही मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। किन्तु पहले इस बाण को मेरे कलेजे से निकालो जिसकी पीड़ा से मैं तड़प रहा हूँ। यद्यपि मैं वनवासी हूँ किन्तु फिर भी ब्राह्मण नहीं हूँ। मेरे पिता वैश्य और मेरी माता शूद्र है। इसलिये मेरी मृत्यु से तुम्हें ब्रह्महत्या का पाप नहीं लगेगा।'

"मेरे द्वारा उसके हृदय से बाण खींचते ही उसने प्राण त्याग दिये। अपने इस कृत्य से मेरा हृदय पश्चाताप से भर उठा। घड़े में जल भर कर मैं उसके माता पिता के पास पहुँचा। मैंने देखा, वे दोनों अत्यन्त दुर्बल और नेत्रहीन थे। उनकी दशा देख कर मेरा हृदय और भी विदीर्ण हो गया। मेरी आहट पाते ही वे बोले - 'बेटा श्रवण! इतनी देर कहाँ लगाई? पहले अपनी माता को पानी पिला दो क्योंकि वह प्यास से अत्यंत व्याकुल हो रही है।'

"श्रवण के पिता के वचनों को सुन कर मैंने डरते-डरते कहा - 'हे मुने! मैं अयोध्या का राजा दशरथ हूं। मैंने, अंधकार के कारण, हाथी के भ्रम में तुम्हारे निरपराध पुत्र की हत्या कर दी है। अज्ञानवश किये गये अपने इस अपराध से मैं अत्यंत व्यथित हूँ। आप मुझे दण्ड दीजिये।'

"पुत्र की मृत्यु का समाचार सुन कर दोनों विलाप करते हुये कहने लगे - 'मन तो करता है कि मैं अभी शाप देकर तुम्हें भस्म कर दूँ और तुम्हारे सिर के सात टुकड़े कर दूँ। किन्तु तुमने स्वयं आकर अपना अपराध स्वीकार किया है, अतः मैं ऐसा नहीं करूँगा। अब तुम हमें हमारे श्रवण के पास ले चलो।' श्रवण के पास पहुँचने पर वे उसके मृत शरीर को हाथ से टटोलते हुये हृदय-विदारक विलाप करने लगे। अपने पुत्र को उन्होंने जलांजलि दिया और उसके पश्चात् वे मुझसे बोले - 'हे राजन्! जिस प्रकार पुत्र वियोग में हमारी मृत्यु हो रही है, उसी प्रकार तुम्हारी मृत्यु भी पुत्र वियोग में घोर कष्ट उठा कर होगी। शाप देने के पश्चात् उन्होंने अपने पुत्र की चिता बनाई और पुत्र के साथ वे दोनों स्वयं भी चिता में बैठ जल कर भस्म हो गये।'

"कौशल्ये! मेरे उस पाप कर्म का दण्ड आज मुझे प्राप्त हो रहा है।"

बुधवार, 25 अप्रैल 2012

सुमन्त का अयोध्या लौटना - अयोध्याकाण्ड (18)



राम से विदा लेकर सुमन्त पहुँचे। उनहोंने देखा कि पूरे अयोध्या में शोक और उदासी व्याप्त थी। उन्हें आते हुये देखकर अयोध्यावासियों ने दौड़ कर रथ को चारों ओर से घेर लिया और प्रश्नों की बौछार करना आरंभ कर दिया, "राम, लक्ष्मण, सीता कहाँ हैं? तुम उन्हें कहाँ छोड़ आये? अपने साथ वापस क्यों नहीं लाये?"


चाहकर भी सुमन्त उन्हें धैर्य नहीं बँधा पा रहे थे। उनका कण्ठ अवरुद्ध हो गया था। उनके नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी। प्रयास करके स्वयं को नियंत्रित किया और लड़खड़ाती वाणी में कहा, "गंगा पार के बाद वे पैदल ही आगे चले गये और उन्होंने आदेशपूर्वक रथ को लौटा दिया।"

सुमन्त के मर्मवेधी वचन सुनकर नगरवासी बिलख-बिलख कर विलाप करने लगे। देखते-देखते सारा बाजार और सभी दुकानें बन्द हो गईं। लोगों ने छोटी-छोटी टोलियाँ बना लिये और शोकाकुल होकर राम के विषय में चर्चा करने लगे। कोई कहता, "राम के बिना अयोध्या सूनी हो गई है। हमें भी यह नगर छोड़ कर अन्यत्र चले जाना चाहिये।" कोई कहता "राम हमसे पिता की भाँति स्नेह करते थे। उनके चले जाने से हम लोग अनाथ हो गये हैं।" अन्य कोई कहता "यह राज्य अब उजड़ गया है। यहाँ रहने का अब कोई अर्थ नहीं है। चलो, हम सब भी वन में चलें।" कोई महाराज दशरथ की निन्दा करता तो कोई रानी कैकेयी को दुर्वचन कहता।

सुमन्त राजप्रासाद के उस श्वेत भवन में जा पहुँचे जहाँ महाराज दशरथ पुत्र वियोग में व्याकुल अर्द्धमूर्छित अवस्था में पड़े अपने अन्तिम श्वासें गिन रहे थे। आशा की कोई धूमिल किरण कभी-कभी चमक उठती थी और उन्हें लगता था कि सम्भव है सुमन्त अनुनय-विनय कर के राम को लौटा लायें। सम्भवतः राम न आयें किन्तु कदाचित सुमन्त सीता को ही वापस ले आयें। उसी समय सुमन्त ने आकर महाराज के चरण स्पर्श किया और विषादपूर्ण स्वर में राम को वन में छोड़ आने की सूचना दी।

सुनते ही व्यथित महाराज मूर्छित हो गये। सम्पूर्ण महल में हाहाकार मच गया। महाराज को झकझोरते हुये कौसल्या ने कहा, "हे आर्यपुत्र! आप चुप कैसे हो गये? बात क्यों नहीं करते? अब तो कैकेयी से की हुई आपकी प्रतिज्ञा पूरी हो चुकी है फिर आप दुःखी क्यों हैं?"

महाराज की मूर्छा भंग होने पर वे राम, सीता और लक्ष्मण का स्मरण कर के विलाप करने लगे। उन्हे धैर्य बँधाते हुये सुमन्त ने हाथ जोड़कर कहा, "कृपानिधान! राम ने आपको प्रणाम कर के कहा है कि हम सब सकुशल हैं। माता कौसल्या के लिये संदेश दिया है कि वे महाराज की हृदय से सेवा करें और कैकेयी के प्रति हृदय में किसी प्रकार का कलुष न रखें। भरत को भी उन्होंने पिता की आज्ञा का पालन करने का आदेश दिया है।"

महाराज दशरथ ने गहरी साँस छोड़ते हुये कहा, "सुमन्त! होनी को कौन टाल सकता है। इस आयु में मेरे प्रिय पुत्र मुझसे अलग हो गये। इस संसार में इससे बढ़ कर भला क्या दुःख होगा?"

कौसल्या कहने लगी, "राम, लक्ष्मण और विशेषतः सीता, जो सदा सुखपूर्व महलों में रही है, कैसे वन के कष्टों को सहन कर पायेंगे। राजन्! आपने ही उन्हें वनवास दिया है, आप जैसा निर्दयी और कोई नहीं होगा। यह सब आपने केवल कैकेयी और भरत के सुख के लिये किया है।"

कौसल्या के इन कठोर वचनों को सुनकर महाराज का हृदय विदीर्ण हो गया। नेत्रों में अश्रु भरकर वे बोले, "कौशल्ये! तुम तो मुझे इस तरह मत धिक्कारो। मैं तुम्हारे हाथ जोड़ता हूँ।"

दशरथ के इन दीन वचनों को सुनकर कौसल्या का हृदय पानी-पानी हो गया और वे रोने लगीं। फिर दोनों हाथ जोड़कर वे बोलीं, "हे आर्यपुत्र! दुःख ने मेरी बुद्ध को हर लिया था। मुझे क्षमा करें। राम को यहाँ से गये आज पाँच रात्रियाँ व्यतीत हो चुकी हैं किन्तु मुझे ये पाँच रात्रियाँ पाँच वर्षों जैसी प्रतीत हुई हैं। इसीलिये मैं अपना विवेक खो बैठी और ऐसा अनर्गल प्रलाप करने लगी।"

कौसल्या के वचन सुनकर राजा दशरथ ने कहा, "कौशल्ये! जो कुछ भी हुआ है वह सब मेरे ही कर्मों का फल है। सुनो मैं तुम्हें बताता हूँ।

शनिवार, 21 अप्रैल 2012

चित्रकूट में - अयोध्याकाण्ड (17)


रात्रि व्यतीत हो गई। प्रातः होने पर अम्बर में उषा की लाली फैलने लगी और आकाश रक्तिम दृष्टिगत होने लगा। राम, सीता और लक्ष्मण संध्योपासनादि से निवृत होकर चित्रकूट पर्वत की ओर चल पड़े। जब दूर से चित्रकूट के गगनचुम्बी शिखर दिखाई देने लगा तो राम सीता से बोले, "हे मृगलोचनी! तनिक जलते हुये अंगारों की भाँति पलाश के इन पुष्पों को देखो जो सम्पूर्ण वन को शोभायमान कर रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है जैसे पुष्पहार लेकर ये हमारा स्वागत कर रहे हैं। हमारे समक्ष दृष्टिगत इन विल्व तथा भल्लांतक के वृक्षों को शायद आज तक किसी भी मनुष्य ने स्पर्श भी नहीं किया होगा।। फिर उन्होंने लक्ष्मण से कहा, "लक्ष्मण! मधुमक्खियों ने इन वृक्षों पर कितने बड़े-बड़े छत्ते बना लिये हैं। वायु के झकोरों से गिरे इन पुष्पों ने सम्पूर्ण पृथ्वी को आच्छादित कर उस पर पुष्पों की शैया बना दिया है। वृक्षों पर बैठे तीतर अपनी मनोहर ध्वनि से हमें आकर्षित कर रहे हैं। मेरे विचार से चित्रकूट का यह मनोरम स्थान हम लोगों के निवास के लिये सब प्रकार से योग्य है। हमें यहीं अपनी कुटिया बनानी चाहिये। मुझे निःसंकोच बताओ कि इस विषय में तुम्हारा क्या विचार है?




लक्ष्मण ने राम की बात का समर्थन करते हुये कहा, "प्रभो! मेरा भी यही विचार है कि यह स्थान हम लोगों के रहने के लिये सभी प्रकार से योग्य है।"

सीता ने भी उनके विचारों का अनुमोदन किया। टहलते टहलते वे वहाँ स्थित वाल्मीकि ऋषि के सुन्दर आश्रम में पहुँचे। राम ने उनका अभिवादन किया और अपना परिचय देते हुए बताया कि हम लोग पिता की आज्ञा से वन में चौदह वर्ष की अवधि व्यतीत करने के लिये आये हैं।

महर्षि वाल्मीकि ने उनका स्वागत करते हुये कहा, "हे दशरथनन्दन! तुमने दर्शन देकर मुझे कृतार्थ कर दिया है। जब तक तुम्हारी इच्छा हो, तुम इस आश्रम में निवास कर सकते हो। तुम वनवास की पूरी अवधि यहीं रह कर व्यतीत कर सकते हो क्योंकि यह स्थान सर्वथा तुम्हारे योग्य है।"

आतिथ्य के लिये आभार प्रकट करते हुये राम ने ऋषि वाल्मीकि से कहा, "निःसन्देह यह सुरम्य वन मुझे, सीता और लक्ष्मण तीनों को ही पसन्द है। किन्तु यहाँ निवास करके मैं आपकी तपस्या में किसी प्रकार का विघ्न उत्पन्न नहीं करना चाहता। हम लोग निकट ही कहीं पर्णकुटी बना कर निवास करेंगे।"

फिर उन्होंने लक्ष्मण से कहा, "भैया, तुम वन से मजबूत लकड़ियाँ काट कर ले आओ। हम इस आश्रम के पास ही कहीं कुटिया बना कर निवास करेंगे।"

रामचन्द्र का आदेश पाकर लक्ष्मण तत्काल वन से लकड़ियाँ काट कर ले आये और उनसे एक सुन्दर तथा कलात्मक कुटिया बना डाली। सुविधायुक्त, सुन्दर एवं कलापूर्ण कुटिया के निर्माण के लिये राम ने लक्ष्मण की भूरि-भूरि प्रशंसा की। फिर उन्होंने सीता के साथ गृह-प्रवेश यज्ञ किया और कुटिया में प्रवेश किया। कुटिया के समीप ही चित्रकूट पर्वत को स्पर्श करती हुई माल्यवती नदी प्रवाहित हो रही थी। सरिता के दोनों ओर पर्वत मालाओं की अत्यन्त नयनाभिराम श्रेणियाँ थीं। सुन्दर मनोमुग्धकारी प्राकृतिक दृश्य ने कुछ समय के लिये राम और सीता के अयोध्या त्यागने के दुःख को भुला दिया। भाँति-भाँति के पक्षियों की मनोहारी स्वर लहरियों को सुन कर और अनेकों रंग के पुष्पों से आच्छादित लताओं-विटपों को देख कर सीता को प्रतीत हुआ कि इस निर्जन वन मे वह राजमहल से भी अधिक सुखी है|

गुरुवार, 19 अप्रैल 2012

चित्रकूट की यात्रा - अयोध्याकाण्ड (16)


दूसरे दिन प्रातःकाल सन्ध्या-उपासनादि से निवृत होकर राम, लक्ष्मण और सीता ने चित्रकूट के लिये प्रस्थान किया। वे यमुना नदी के किनारे पहुँचे। चित्रकूट पहुँचने के लिये यमुना को पार करना आवश्यक था। यमुना का प्रवाह अपने पूर्ण यौवन पर था, उसमें गम्भीर जलधारा अति वेग के साथ प्रवाहित हुये जा रही थी। यमुना के इस प्रचण्ड प्रवाह को देख कर सीता आतंकित हो उठीं। वे विचार करने लगीं कि इस वेगवान जलधारा को भला मैं कैसे पार कर सकूँगी। यहाँ तो कोई नौका आदि भी दृष्टिगत नहीं होती।


यमुना की तरंगें इतनी ऊँची उठ रही थीं मानो वे आपस में आकाश को स्पर्श करने की होड़ लगा रही हों। इस स्थिति को देख कर थोड़ी देर तक राम और लक्ष्मण ने परस्पर विचार-विमर्श किया। फिर लक्ष्मण वन में से कुछ बाँस, लकड़ी और लताएँ तोड़ लाये। उन्होंने बाँस और लकड़ियों को लताओं से बाँधकर तात्कालिक रूप से उपयोग करने योग्य एक नौका का निर्माण किया। उसमें एक आसन भी सीता के बैठने के लिये बनाया गया। फिर उन्होंने नौका को यमुना में उतार दिया। रामचन्द्र ने सीता को भुजाओं में उठाकर उस नौका में बिठाया। अपने तथा लक्ष्मण के वक्कलों को भी नौका में रख दिया। तत्पश्चात् दोनों भाइयों ने तैरते हुये नाव को आगे धकेलना आरंभ किया। नाव मँझधार में पहुँचकर वेगवती लहरों के झकोरों के कारण ऊपर नीचे होने लगी। इस स्थिति में जानकी आकाश की ओर देख कर परमात्मा से प्रार्थना करने लगी, "हे ईश्वर! हमें कुशलतापूर्वक पार पहुँचा दे। मैं यह व्रत लेती हूँ कि वनवास की अवधि समाप्त करके लौटने पर मैं यहाँ यज्ञ करूँगी।

कुछ ही काल में समस्त बाधाओं को पार करती हुई नौका यमुना के दूसरे तट पर पहुँच गई। नौका को यमुना के तट पर ही छोड़ वे तीनों एक सघन श्यामवट वृक्ष के नीचे विश्राम करने उद्देश्य से बैठ गये। थोड़ी देर विश्राम करने के पश्चात् उन्होंने आगे प्रस्थान किया। चलते-चलते वे ऐसे स्थान पर पहुँचे जहाँ मयूर अपनी मधुर ध्वनि से सम्पूर्ण वातावरण को आह्लादित कर रहे थे। यूथ बनाये हुये वानर वृक्षों की शाखाओं पर चंचलतापूर्वक उछल रहे थे। भगवान भास्कर भी अस्ताचल के द्वार पर जा पहुँचे थे। लालिमा से युक्त सूर्य की रक्तिम किरणें पर्वतों की चोटियों को स्वर्णमय बना रहे थे। कुछ ही काल में सूर्यदेव ने अपनी किरणों को समेट लिया है। चारों ओर अंधकार व्याप्त होने लगी। सीता तथा लक्ष्मण की सहमति प्राप्त कर राम ने वहीं विश्राम करने का निर्णय किया। वह अति रमणीक स्थान यमुना के समतल तट पर स्थित था। सबने यमुना में स्नान किया और उसी के तट पर सन्ध्योपासना की। उसके पश्चात् लक्ष्मण ने राम और सीता के लिये तृण की शैयाओं का निर्माण किया और वहीं उन्होंने रात्रि व्यतीत की।

बुधवार, 18 अप्रैल 2012

ऋषि भरद्वाज के आश्रम में- अयोध्याकाण्ड (15)


जब निषादराज गुह के वापस गंगा के उस पार चले गए तब राम ने लक्ष्मण से कहा, "हे सौमित्र! अब हम सामने के फैले हुये इस निर्जन वन में प्रवेश करेंगे। यह भी हो सकता है कि हमें इस वन में हमें अनेक प्रकार की भयंकर स्थितियों और उपद्रवों का सामना करना पड़े। कोई भी भयंकर प्राणी किसी भी समय, किसी भी ओर से आकर, हम पर आक्रमण कर सकता है। अतः तुम सबसे आगे चलो। तुम्हारे पीछे सीता चलेंगी और सबसे पीछे तुम दोनों की रक्षा करते हुये मैं रहूँगा। अच्छी तरह से समझ लो कि यहाँ हम लोगों को आत्मनिर्भर होकर स्वयं ही एक दूसरे का बचाव करना पड़ेगा।"


राम की आज्ञा के अनुसार लक्ष्मण धनुष बाण सँभाले हुये आगे-आगे चलने लगे तथा उनके पीछे सीता और राम उनका अनुसरण करने लगे। वन के भीतर चलते-चलते ये तीनों वत्स देश में पहुँचे। यह विचार करके कि कोमलांगी सीता इस कठोर यात्रा से अत्यधिक क्लांत हो गई होंगीं, वे विश्राम करने के लिये एक वृक्ष के नीचे रुक गये। सन्ध्या हो जाने पर उन्होंने संध्योपासना आदि कर्मों से निवृति पाकर वहाँ उपलब्ध वन्य पदार्थों से अपनी क्षुधा मिटाई।

शनैः शनैः रात्रि गहराने लगी। राम लक्ष्मण से बोले, "भैया लक्ष्मण! इस निर्जन वन में आज हमारी यह प्रथम रात्रि है। जानकी की रक्षा का दायित्व हम दोनों भाइयों पर ही है इसलिये तुम सिंह की भाँति निर्भय एवं सतर्क रहना। ध्यान से सुनो, कुछ दूरी पर अनेक प्रकार के हिंसक प्राणियों के स्वर सुनाई दे रहे हैं। किसी भी क्षण वे इधर आकर तनिक भी अवसर पाकर हम पर आक्रमण कर सकते हैं। इसलिये हे वीर शिरोमणि! किसी भी अवस्था किंचित भी असावधान मत होना।"

फिर विषय को परिवर्तित करते हुये वे बोले, "आज पिताजी अयोध्या में बहुत दुःखी हो रहे होंगे और माता कैकेयी उतनी ही आनन्दित हो रही होंगीं। अपने पुत्र को सिंहासनारूढ़ करने के लिये कैकेयी कुछ भी कर सकती हैं। रह-रह कर मेरे मन में एक आशंका उठती है कि कहीं वे पिताजी के भी प्राण छल से न ले लें। धर्म से पतित और लोभ के वशीभूत हुआ मनुष्य भला क्या कुछ नहीं कर सकता? ईश्वर न करे कि ऐसा हो। अन्यथा वृद्धा माता कौसल्या भी पिताजी के और हमारे वियोग में अपने प्राण त्याग देंगीं। इस अन्याय को देखकर मेरे हृदय में अवर्णनीय वेदना होती है। जी चाहता है कि इन निरीह वृद्ध प्राणियों के जीवन की रक्षा के लिये सम्पूर्ण अयोध्यापुरी को बाणों से बींध दूँ, किन्तु मेरा धर्म मुझे ऐसा करने से रोकता है। सत्य जानो कि मैं आज बड़ा दुःखी हूँ।" ऐसा कहते-कहते रामका कण्ठ अवरुद्ध हो गया और वे चुप होकर अश्रुपूरित नेत्रों से पृथ्वी की ओर देखने लगे।

जब लक्ष्मण ने राम को इस प्रकार दुःख से संतप्त होते देखा तो उन्होंने धैर्य बँधाते हुये कहा, "हे आर्य! इस प्रकार शोक विह्वल होना आपको शोभा नहीं देता। आपको दुःखी देखकर भाभी को भी दुःख होगा। अतः आप धैर्य धारण करें। बड़े से बड़े संकट में भी आपने धैर्य का सम्बल कभी नहीं छोड़ा, फिर आज इस प्रकार अधीर क्यों हो रहे हैं? उचित तो यही है कि हम काल की गति को देखें, परखें और उसके अनुसार ही कार्य करें। मुझे विश्वास है कि वनवास की यह अवधि निष्कंटक समाप्त हो जायेगी और उसके पश्चात् हम कुशलतापूर्वक वापस अयोध्या लौटकर सुख शान्ति का जीवन व्यतीत करेंगे।"

तृणों की शैया पर लेटे हुये राम के निद्रामग्न हो जाने पर लक्ष्मण सम्पूर्ण रात्रि निर्भय होकर धनुष बाण सँभाले राम और सीता के रक्षार्थ पहरा देते रहे।

रात्रि व्यतीत होने पर सूर्योदय से पूर्व ही राम, लक्ष्मण और सीता ने सन्धयावन्दनादि से निवृत होकर त्रिवेणी संगम की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में लक्ष्मण ने कुछ वृक्षों के स्वादिष्ट फलों को तोड़ कर राम और सीता को दिया तथा स्वयं भी उनसे अपनी क्षुधा शान्त की। सन्ध्या होत-होते वे गंगा और यमुना के संगम पर पहुँच गये। कुछ देर तक संगम के रमणीक दृश्य को देखने के बाद राम बोले, "लक्ष्मण! आज की इस यात्रा ने हमें महातीर्थ प्रयागराज के निकट पहुँचा दिया है। हवन-कुण्ड से उठती हुई यह धूम्र-रेखाएँ ऐसी प्रतीत हो रही हैं मानो अग्निदेव की पताका फहरा रही हों। हवन के इस धुएँ की स्वास्थ्यवर्द्धक सुगन्धि से सम्पूर्ण वायु-मण्डल आपूरित हो रहा है। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि हम महर्षि भरद्वाज के आश्रम के आसपास पहुँच चुके हैं।"

संगम की उस पवित्र स्थली में गंगा और यमुना दोनों ही नदियाँ कल-कल नाद करती हुई प्रवाहित हो रहीं थीं। निकट ही महर्षि भरद्वाज का आश्रम था। आश्रम के भीतर पहुँच कर राम ने भरद्वाज मुनि का अभिवादन किया और कहा, "हे महामुने! अयोध्यापति महाराज दशरथ के पुत्र राम और लक्ष्मण आपको सादर प्रणाम करते हैं। भगवन्! पिता की आज्ञा से मैं चौदह वर्ष-पर्यन्त वन में निवास करने आया हूँ। ये मेरे अनुज लक्ष्मण तथा मेरी पत्नी मिथिलापति जनक की पुत्री सीता हैं।"

उनका हार्दिक सत्कार करने तथा बैठने के लिये आसन दिने के पश्चात् मुनि भरद्वाज ने उनके स्नान आदि की व्यवस्था किया और उनके भोजन के लिये अनेक प्रकार के फल दिये।

फिर ऋषि भरद्वाज बोले, "मुझे ज्ञात हो चुका है कि महाराज दशरथ ने निरपराध तुम्हें वनवास दिया है और तुमने मर्यादा की रक्षा के लिये उसे सहर्ष स्वीकार किया है। तुम लोग चौदह वर्ष तक मेरे इसी आश्रम में निश्चिन्त होकर रह सकते हो। यह स्थान अत्यन्त रमणीक भी है।"

राम ने कहा, "निःसन्देह आपका स्थान अत्यन्त मनोरम एवं सुखद है, परन्तु मैं यहाँ निवास नहीं करना चाहता क्योंकि आपका आश्रम अपनी गरिमा के कारण दूर-दूर तक विख्यात है। मेरे यहाँ निवास करने की सूचना अवश्य ही अयोध्यावासियों को मिल जायेगी और उनका यहाँ ताँता लग जायेगा। इस प्रकार हमारे तपस्वी धर्म में बाधा पड़ेगी। आपको भी इससे असुविधा होगी। अतएव आप कृपा करके हमें कोई अन्य स्थान के विषय में बताइये जो एकान्त में हो और जहाँ सीता का मन भी लगा रहे।"

राम के तर्कयुक्त वचनों को सुन कर ऋषि भरद्वाज ने कहा, "यदि तुम्हारा ऐसा ही विचार है तो तुम चित्रकूट में जाकर निवास कर सकते हो जो कि यहाँ से दस कोस की दूरी पर है और उस पर्वत पर अनेक ऋषि-मुनि तथा तपस्वी अपनी कुटिया बना कर तपस्या करते हैं। वह स्थान रमणीक तो है ही और फिर वानर, लंगूर आदि ने उसकी शोभा को द्विगुणित कर दिया है। चित्रकूट की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि अनेक ऋषि-मुनियों की तपस्यास्थली रही है जिन्होंने मोक्ष प्राप्त की है।"

महर्षि भरद्वाज ने उन्हें उस प्रदेश के विषय में और भी अनेकों ज्ञातव्य बातें बताईं। रात्रि हो जाने पर तीनों ने वहीं विश्राम किया।

सोमवार, 9 अप्रैल 2012

गंगा पार करना - अयोध्याकाण्ड (14)


ब्राह्म-बेला में राम ने शैया का परित्याग कर दिया और लक्ष्मण से कहा, "तात! भगवती रात्रि व्यतीत हो गई। अब सूर्योदय का समय आ पहुँचा है। कोकिल की कूक सुनाई दे रही है। मोरों की बोली सुनाई दे रही है। यही वह अवसर है जब कि हमें तीव्र गति से बहने वाली समुद्रगामिनी परम पावन गंगा को पार कर लेना चाहिये।"


सुमत्राकुमार लक्ष्मण ने श्री रामचन्द्र जी के कथन का अभिप्राय समझकर गुह और सुमन्त को बुलाकर पार उतरने की व्यवस्था करने के लिए कहा। निषादराज ने अपने मन्त्रियों को आदेश दिया कि एक सुन्दर द्रुतगामी नौका ले आओ। आज्ञा पाते ही निषादराज के अनुचर तत्काल जाकर उनके लिये एक श्रेष्ठ नौका ले आये। नौका के घाट पर लग जाने पर राम, सीता और लक्ष्मण घाट की ओर चले।

उन्हें घाट की ओर जाते देखकर मन्त्री सुमन्त ने हाथ जोड़ कर कहा, "हे रघुकुलशिरोमणि! अब मेरे लिये क्या आज्ञा है?" रामचन्द्र ने उनकी कर्तव्यनिष्ठा की प्रशंसा की और धन्यवाद देते हुये कहा, "सुमन्त! अब आप शीघ्र अयोध्या के लिये प्रस्थान करें। गंगा पार करने पश्चात् हम उसके आगे की यात्रा पैदल ही करेंगे। आप अयोध्या जाकर मेरी, सीता और लक्ष्मण की ओर से पिताजी, माताओं एवं अन्य गुरुजनों की चरण वन्दना करें। उन्हें धैर्य दिलाते हुये हमारी ओर से सन्देश दें कि हम तीनों में से किसी को भी अपने वनवास का किन्चितमात्र भी दुःख नहीं है। उन्हें यह भी कहें कि चौदह वर्ष की अवधि समाप्त होने पर मैं, सीता और लक्ष्मण आपके दर्शन करेंगे। आप भाई भरत को कैकेय से शीघ्र बुला लें तथा राज्य सिंहासन सौंप दें ताकि प्रजा को किसी प्रकार का कष्ट व असुविधा न हो। हे मन्त्रिवर! भरत से भी मेरा यह संदेश देना कि वे सभी माताओं का समान रूप से आदर करें और प्रजाजनों के हितों का सदैव ध्यान रखें।"

सुमन्त अत्यंत विह्वल हो गये और उनके नेत्रों से अश्रुधारा बह चली। अवरुद्ध कण्ठ से वे बोले, "हे तात! आपके वियोग में संतप्त अयोध्या की प्रजाजनों के सम्मुख मैं कैसे जा सकूँगा? जब वे पूछेंगे कि आप लोगों को छोड़ कर कैसे लौट आये तो मैं क्या उत्तर दूँगा? मैं जानता हूँ कि आपको न पाकर सहस्त्रों अयोध्यावासी शोक से मूर्छित हो जायेंगे। उनकी दशा सेनापति रहित सेना जैसी हो जायेगी। हे स्वामी! यह तो आप देख ही चुके हैं कि अयोध्या से वन के लिये चलते समय अयोध्यावासियों की क्या दशा हुई थी। इस खाली रथ को देख कर सम्पूर्ण अयोध्या नगरी का हृदय विदीर्ण हो जायेगा। हे प्रभु! मैं माता कौसल्या को कैसे अपना मुख दिखा सकूँगा? आप लोगों के बिना लौटना मेरे लिये बड़ा कठिन है। इसलिये हे नाथ! आप कृपा करके मुझे भी अपने साथ ले चलें।"

इस प्रकार से दीन वचन कहकर बारम्बार याचना करनेवाले सुमन्त से सेवकों पर कृपा करने वाले श्री राम ने प्रेमपूर्वक कहा, "भाई सुमन्त! मेरे प्रति आपकी जो उत्कृष्ट भक्ति है उसे मै अच्छी तरह से समझता हूँ। किन्तु तुम्हारे न लौटने से माता कैकेयी के मन में शंका उत्पन्न हो जायेगी। वे समझेंगी कि हम लोग षड़यंत्र करके राज्य में ही कहीं छुप गये हैं। इसलिये मेरा तुमसे अनुरोध है कि तुम नगर को लौट जाओं। तुम्हारे लौटने से जहाँ माता कैकेयी की शंका भी समाप्त हो जायेगी और महाराज तथा मुझ पर किसी प्रकार का कलंक भी नहीं लगेगा। कलंक चाहे झूठा ही क्यों न हो, उसकी प्रतिक्रिया बड़ी व्यापक होती है।" इस प्रकार अनेकों प्रकार से समझा बुझाकर रामचन्द्र ने सुमन्त को विदा किया। सुमन्त अश्रुपूरित नेत्रों से रथ में बैठ कर अयोध्या के लिये चल पड़े।

सुमन्त के जाने के पश्चात् राम गुह से बोले, "निषादराज! तुम कृपा करके हमारे लिये बड़ का दूध मँगा दो क्योंकि अब हम वनवासी और तपस्वी हो गये हैं और हमें जटाएँ धारण करके तापस धर्म की मर्यादाओं का पालन करते हुये निर्जन वनों में निवास करना चाहिये।"

राम की बात सुन कर गुह स्वयं जाकर बड़ का दूध ले आये जिससे राम, सीता और लक्ष्मण ने जटाएँ बनाईं और नियमपूर्वक तपस्वी धर्म को स्वीकार करते हुये गंगा पार करने को उद्यत हुये। नौका पर सवार होकर तीनों ने कलुषहारिणी गंगा को पार किया। गंगा के पार पहुँच जाने पर राम ने गुह को हृदय से लगा लिया। फिर उनके स्नेहपूर्ण आतिथ्य के लिये उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुये उन्होंने निषादराज को विदा किया|

भीलराज गुह - अयोध्याकाण्ड (13)


गंगा के इस प्रदेश पर भीलों का अधिकार था और उनके राजा का नाम गुह था। एक लोकप्रिय एवं सशक्त शासक होने के साथ ही साथ गुह राम का भक्त भी था। यह ज्ञात होने पर कि राम अपने लघु भ्राता लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ उसके क्षेत्र में आये हुये हैं, वह अपने मन्त्रियों तथा परिजनों के साथ उनके स्वागत के लिये आ पहुँचा। भीलराज गुह को देखकर राम स्वयं आगे बढ़े और उनसे गले मिले। वक्कल धारण किये हुये राम, सीता और लक्ष्मण को देख कर गुह को अत्यन्त क्षोभ हुआ। उसने विनयपूर्ण तथा आर्त स्वर में कहा, "हे रामचन्द्र! इस प्रदेश को आप अपना ही प्रदेश समझें। आप यहाँ का अधिपति बनकर यहाँ का शासन सँभाल लें। आपके समान समदर्शी एवं न्यायवेत्ता शासक पाकर यह प्रदेश धन्य हो जायेगा। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि यह सम्पूर्ण भूमि आपकी ही है और हम सब आपके अनन्य सेवक हैं।"


इतना कहकर गुहराज ने अपने साथ लाई हुई सामग्री को राम के समक्ष रख दिया और बोला, "हे, स्वामी! ये भक्ष्य, पेय, लेह्य तथा स्वादिष्ट फल आपकी सेवा में प्रस्तुत है। आप कृपा करके इन्हें स्वीकार करें। आप लोगों के विश्राम के लिये व्यवस्था कर दी गई है। अश्वों के लिये दाना-चारा भी तैयार है।"

गुह की प्रेममय वचनों को सुनकर राम बोले, "हे निषादराज! आप इस प्रदेश के राजा हैं फिर भी आप मेरे स्वागत के लिये पैदल चलकर आये हैं। मैं आपकी जितनी प्रशंसा करूँ, कम है। आपने दर्शन देकर हम लोगों को कृतार्थ कर दिया है।"

इस प्रकार निषादराज की प्रशंसा करते हुये राम उन्हें प्रेमपूर्वक अपने पास बिठा लिया और मधुर वाणी में कहने लगे, "भीलराज! आपको सानन्द और सकुशल देखकर मुझे अत्यधिक प्रसन्नता हो रही है। आपके द्वारा लाये गये इन उत्तमोत्तम पदार्थ के लिये मैं आपका अत्यंन्त आभारी हूँ। किन्तु बन्धु! मुझे खेद है कि मैं इन्हें स्वीकार नहीं कर सकता। ये सारे पदार्थ राजा-महाराजाओं के खाने योग्य हैं किन्तु अब हम तपस्वी हो गये हैं और हमारा भोजन तो केवल कन्द-मूल-फल है। अतः हम इसे ग्रहण नहीं कर सकते। हाँ, अश्वों के लिये आप जो दाना-चारा लाये हैं उन्हें स्वीकार करके मुझे बहुत प्रसन्नता होगी क्योंकि ये मेरे पिताजी के प्रिय अश्व हैं, जिनकी सदैव विशेष देख-भाल की जाती है।"

गुह ने भीलों को अश्वों के विशेष प्रबन्ध करने के लिये आदेश दे दिया। सन्ध्या होने पर राम, सीता और लक्ष्मण ने गंगा में स्नान किया तथा ईश्वरोपासना के पश्चात् उन्होंने कन्द-मूल-फल का आहार किया। गुहराज उन्हें उस कुटी तक ले गये जहाँ पर उन्होंने उनके विश्राम के लिये अपने हाथों से प्रेमपूर्वक तृण शैयाएँ बनाई थीं। कुटी में पहुँच कर गुह ने कहा, "हे दशरथनन्दन! आप इन शैयाओं पर विश्राम कीजिये। मैं आपका दास हूँ अतः मैं पूर्ण रात्रि जाग कर हिंसक पशुओं से आप लोगों की रक्षा करूँगा आप हमें सर्वाधिक प्रिय हैं। इसलिये आप लोगों की सुरक्षा के लिये रात भर मेरे ये सभी साथी धनुष बाण लेकर तत्पर रहेंगे।"

उनकी बातें सुनकर लक्ष्मण ने कहा, "हे गुहराज! मुझे आपकी शक्ति, निष्ठा और भैया राम के प्रति आपके अनन्य प्रेम पर पूर्ण विश्वास है। निःसन्देह आपके राज्य में हमें किसी प्रकार की विपत्ति की आशंका नहीं हो सकती। किन्तु मैं भैया राम का दास हूँ अतः मैं इनके बराबर में सो नहीं सकता। मैं भी रात भर आपके साथ पहरा देकर अपना कर्तव्य पूरा करूँगा।

भीलराज गुह और लक्ष्मण कुटी के बाहर एक शिला पर बैठकर पहरा देते हुये बातें करने लगे। लक्ष्मण ने गुह को अयोध्या में घटित समस्त घटनाओं के विषय में बताया। इस प्रकार वह रात्रि व्यतीत हो गई|