शुक्रवार, 30 मार्च 2012

वनगमन पूर्व राम के द्वारा दान - अयोध्याकाण्ड (8)


बड़े भाई राम की आज्ञानुसार लक्ष्मण गुरु वशिष्ठ के पुत्र सुयज्ञ को अपने साथ ले आये। राम और सीता ने अत्यंत श्रद्धा के साथ उनकी प्रदक्षिणा की। इसके पश्चात् उन्होंने अपने स्वर्ण कुण्डल, बाजूबन्द, कड़े, मालाएँ तथा रत्नजटित अन्य आभूषणों को उन्हें देते हुये कहा, "हे मित्र! जनकनन्दिनी सीता भी मेरे साथ वन को जा रही हैं। इसलिये ये अपने कंकण, मुक्तमाला-किंकणी, हीरे, मोती, रत्नादि समस्त आभूषण आपकी पत्नी को दान करना चाहती हैं। आप इन आभूषणों को सीता की ओर से उन्हें आदर तथा नम्रता के साथ समर्पित कर देना। मेरी यह स्वर्णजटित शैया अब मेरे लिये किसी काम का नहीं है अतः इसे भी आप ले जाइये। मेरे मामा ने अत्यंत स्नेह के साथ मुझे यह हाथी दिया था, इसे भी सहस्त्र स्वर्णमुद्राओं के साथ आप स्वीकार करें।"


राम के वनगमन के विषय में ज्ञात होने पर सुयज्ञ के नेत्रों अश्रु भर आये। सजल नेत्रों के साथ राम के द्वारा प्रदान की गई वस्तुओं को उन्होंने ग्रहण किया और आशीर्वाद दिया, "हे राम! तुम चिरजीवी होओ। तुम्हारा चौदह वर्ष का वनवास तुम्हारे लिये निष्कंटक और कीर्तिदायक हो। वनवास की अवधि समाप्त होने पर लौटने पर तुम्हें अयोध्या का राज्य पुनः प्राप्त हो।"

इस प्रकार आशीर्वाद देकर गुरुपुत्र सुयज्ञ विदा हुये। उसके बाद राम ने अपने सेवकों को, जो कि राम के वनवास से दुखी होकर रो रहे थे, बहुत सारा धन दान में दिया और सान्त्वना देते हुये बोले, "तुम लोग यहीं रहकर महाराज, माता कौशल्या, सुमित्रा, कैकेयी, भरत, शत्रुघ्न एवं अन्य गुरुजनों की तन मन लगाकर सेवा करना। सदैव इस बात का ध्यान रखना कि उन्हें किसी प्रकार की असुविधा न हो।"

फिर राम ने अपनी समस्त व्यक्तिगत सम्पत्ति को मंगवाकर सीता के हाथों से उसे गरीब, दुःखी, दीन-दरिद्रों में बँटवा दिया।

राम और सीता के द्वारा मुक्त हस्त से दान दिए जाने की चर्चा सारे नगर में दावानल की भाँति फैल गई। उन दिनों अयोध्या के समीपवर्ती एक ग्राम में गर्गगोत्री त्रिजटा नामक एक तपस्वी ब्राह्मण निवास करता था। उनकी बहुत सी सन्तानें थीं और वह अत्यन्त दरिद्र था। उसे अपनी गृहस्थी का पालन पोषण करने में अत्यंत कठिनाई होती थी। राम के द्वारा किये जाने वाले दान की चर्चा सुनकर उसकी पत्नी ने उनसे से कहा, "हे स्वामी! आपको भी ज्ञात हुआ होगा कि अयोध्या के ज्येष्ठ राजकुमार श्री रामचन्द्रजी अपना सर्वस्व दान में वितरित कर रहे हैं। आप भी उनके पास जाकर याचना करें। हमारी निर्धनता और दरिद्रता से तथा आपकी याचना से द्रवित होकर दयालु राम हम पर भी अवश्य ही दया करेंगे और इस दरिद्रता से हमारा उद्धार कर देंगे।"

तपस्वी त्रिजटा याचना में रुचि नहीं रखते थे। किन्तु पत्नी के बार-बार प्रेरित किये जाने पर विवश होकर वे श्री राम के दरबार की ओर चल पड़े। वे शीघ्रातिशीघ्र एक के बाद एक पाँच ड्यौढ़ियाँ पार करके राम के समक्ष जा पहुँचे। उनकी तपस्याजनित तेज और ओज प्रभावित राम बोले, "हे तपस्वी! हे ब्राह्मण देवता!! आपका हृदय तीव्र गति से स्पंदित हो रहा है और शुभ्रभाल पर स्वेद कण झलक रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि आप बड़ी दूर से तीव्र गति के साथ चले आ रहे हैं। आपकी वेषभूषा आपके धन का अभाव का परिचाय देता है। अतः आपने अपने हाथ में जो दण्ड रखा है उसे आप अपनी पूर्ण शक्ति के साथ फेंकिये। यह दण्ड जहाँ पर जाकर गिरेगा, आपके खड़े होने से उस स्थान तक जितनी गौएँ खड़ी हो सकेंगी, मैं आपको अर्पित कर दूँगा और उन गौओं के भरण पोषण के लिये भी पर्याप्त साधन जुटा दूँगा।"

इस आदेश को सुनकर त्रिजटा ने पूरी शक्ति के साथ दण्ड फेंका। दण्ड सरयू नदी के दूसरी पार जाकर गिरा। राम ने उसके बल की सराहना की तथा उसे अपनी प्रतिज्ञानुसार गौएँ दान में दीं। उनको विदा करने के पूर्व स्वर्ण, मोती, मुद्राएँ, वस्त्रादि भी दान में दिया।

इस प्रकार अपनी असंख्य धनराशि का दान कर सबको सन्तुष्ट करने के पश्चात् वे सीता और लक्ष्मण के साथ पिता के दर्शनों के लिये चले गये|

बुधवार, 28 मार्च 2012

सीता और लक्ष्मण का अनुग्रह - अयोध्याकाण्ड (7)


माता कौशल्या से अनुमति प्राप्त करने तथा विदा लेने के पश्चात् राम जनकनन्दिनी सीता के कक्ष में पहुँचे। उस समय वे राजसी चिह्नों से पूर्णतः विहीन थे। उन्हें राजसी चिह्नों से विहीन देख कर सीता ने पूछा, "हे आर्यपुत्र! आज आपके राज्याभिषेक का दिन पर भी आप राजसी चिह्नों से विहीन क्यों हैं?"


राम ने गंभीर किन्तु शान्त वाणी में सीता को समस्त घटनाओं विषय में बताया और कहा, "प्रिये! मैं तुमसे विदा माँगने आया हूँ क्योंकि मैं तत्काल ही वक्कल धारण करके वन के लिये प्रस्थान करना चाहता। मेरी चाहता हूँ कि मेरे जाने के बाद तुम अपने मृदु स्वभाव तथा सेवा-सुश्रूषा से माता-पिता तथा भरत सहित समस्त परिजनों को प्रसन्न और सन्तुष्ट रखना। अब तक तुम मेरी प्रत्येक बात श्रद्धापूर्वक मानती आई हो और मुझे विश्वास है कि आगे भी मेरी इच्छानुसार तुम यहाँ रहकर अपने कर्तव्य का पालन करोगी।"

सीता बोलीं, "प्राणनाथ! शास्त्रों बताते हैं कि पत्नी अर्द्धांगिनी होती है। यदि आपको वनवास की आज्ञा मिली है तो इसका अर्थ है कि मुझे भी वनवास की आज्ञा मिली है। कोई विधान नहीं कहता कि पुरुष का आधा अंग वन में रहे और आधा अंग घर में। हे नाथ! स्त्री की गति तो उसके पति के साथ ही होती है, इसलिये मैं भी आपके साथ वन चलूँगी। आपके साथ रहकर वहाँ मैं आपके चरणों के सेवा करके अपना कर्तव्य निबाहूँगी। पति की सेवा करके पत्नी को जो अपूर्व सुख प्राप्त होता है है वह सुख लोक और परलोक के सभी सुखों से बड़ा होता है। पत्नी के लिये पति ही परमेश्वर होता है। यदि आप कन्द-मूल-फलादि से अपनी उदर पूर्ति करेंगे तो मैं भी अपनी क्षुधा वैसे ही शांत करूँगी। आपसे अलग होकर स्वर्ग का सुख-वैभव भी मैं स्वीकार नहीं कर सकती। यदि आप मेरी इस विनय और प्रार्थना की उपेक्षा करके मुझे अयोध्या में छोड़ जायेंगे आपके वन के लिये प्रस्थान करते ही मैं अपना प्राणत्याग दूँगी। यही मेरी प्रतिज्ञा है।"

राम को वन में होने वाले कष्टों को ध्यान था इसीलिए वे अपने साथ सीता को वन में नहीं ले जाना चाहते थे। वे उन्हें समझाने का प्रयत्न करने लगे किन्तु जितना वे प्रयत्न करते थे सीता का हठ उतना ही बढ़ते जाता था। किसी भी प्रकार से समझाने बुझाने का प्रयास करने पर वे अनेक प्रकार के शास्त्र सम्मत तर्क करने लगतीं और उनके प्रयास को विफल करती जातीं। जनकनन्दिनी की इस दृढ़ता के समक्ष राम का प्रत्येक प्रयास असफल हो गया और अन्त में उन्हें सीता को अपने साथ वन ले जाने की आज्ञा देने के लिये विवश होना पड़ा।

सीता की तरह ही लक्ष्मण ने भी राम के साथ वन में जाने के लिये बहुत अनुग्रह किया। राम ने बहुत प्रकार से समझाया किन्तु लक्ष्मण उनके साथ जाने के विचार पर दृढ़ रहे। परिणामस्वरूप राम को लक्ष्मण की दृढ़ता, स्नेह तथा अनुग्रह के सामने भी झुकना पड़ा और लक्ष्मण को भी साथ जाने की अनुमति देनी ही पड़ी।

सीता और लक्ष्मण ने कौशल्या तथा सुमित्रा दोनों माताओं से आज्ञा लेने बाद, अनुनय विनय करके महाराज दशरथ से भी वन जाने की अनुमति देने के लिये मना लिया। इतना करने के पश्चात् लक्ष्मण शीघ्र आचार्य के पास पहुँचे और उनसे समस्त अस्त्र-शस्त्रादि लेकर राम के पास उपस्थित हो गये। लक्ष्मण के आने पर राम ने कहा, "हे सौमित्र! वन के लिये प्रस्थान करने के पूर्व मैं अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति ब्राह्मणों, दास दासियों तथा याचकों में वितरित करना चाहता हूँ इसलिये तुम गुरु वशिष्ठ के ज्येष्ठ पुत्र को बुला लाओ।"

मंगलवार, 27 मार्च 2012

माता कौशल्या से विदा - अयोध्याकाण्ड (6)


अपने पिता एवं माता कैकेयी के प्रकोष्ठ से राम अपनी माता कौशल्या के पास पहुँचे। अनुज लक्ष्मण वहाँ पर पहले से ही उपस्थित थे। राम ने माता का चरणस्पर्श किया और कहा, "हे माता! माता कैकेयी के द्वारा दो वर माँगने पर पिताजी ने भाई भरत को अयोध्या का राज्य और मुझे चौदह वर्ष का वनवास दिया है। अतः मैं वन के लिये प्रस्थान कर रहा हूँ। विदा होने के पूर्व आप मुझे आशीर्वाद दीजिये।"


राम द्वारा कहे गए इन हृदय विदारक वचनों को सुनकर कौशल्या मूर्छित हो गईं। राम ने उनका यथोचित उपचार किया और मूर्छा भंग होने पर वे विलाप करने लगीँ।

उनका विलाप सुन कर लक्ष्मण बोले, "माता! भैया राम तो सद गुरुजनों का सम्मान तथा उनकी आज्ञा का पालन करते हैं। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि मेरे देवता तुल्य भाई को किस अपराध में यह दण्ड दिया गया है? ऐसा प्रतीत होता है कि वृद्धावस्था ने पिताजी की बुद्धि को भ्रष्ट कर दिया है। उचित यही है कि बड़े भैया उनकी इस अनुचित आज्ञा का पालन न करें और निष्कंटक राज्य करें। भैया राम के विरुद्ध सिर उठाने वालों को मैं तत्काल कुचल दूँगा। राम का अपराध क्या है? उनकी नम्रता और सहनशीलता? मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि यदि राम के राजा बनने में भरत या उनके पक्षपाती कंटक बनेंगे तो मैं उन्हें उसी क्षण यमलोक भेज दूँगा। मैं भी उसी प्रकार आपके दुःखों को दूर कर दूँगा जिस प्रकार से सूर्य अन्धकार को मिटा देता है।"

लक्ष्मण के शब्दों से माता कौशल्या को ढांढस मिला और उन्होंने कहा, "पुत्र राम! तुम्हारे छोटे भाई लक्ष्मण का कथन सत्य है। तुम मुझे इस प्रकार बिलखता छोड़कर वन के लिये प्रस्थान नहीं कर सकते। यदि पिता की आज्ञा का पालन करना तुम्हारा धर्म है तो माता की आज्ञा का पालन करना भी तुम्हारा धर्म ही है। मैं तुम्हें आज्ञा देती हूँ कि अयोध्या में रहकर मेरी सेवा करो।"

इस पर माता को धैर्य बँधाते हुये राम बोले, "माता! आप इतनी दुर्बल कैसे हो गईं? ये आज आप कैसे वचन कह रही हैं? आपने ही तो मुझे बचपन से पिता की आज्ञा का पालन करने की शिक्षा दी है। अब क्या मेरी सुख सुविधा के लिये अपनी ही दी हुई शिक्षा को झुठलायेंगी? एक पत्नी के नाते भी आपका कर्तव्य है कि आप अपने पति की इच्छापूर्ति में बाधक न बनें। आप तो जानती ही हैं कि चाहे सूर्य, चन्द्र और पृथ्वी अपने अटल नियमों से टल जायें, पर राम के लिये पिता की आज्ञा का उल्लंघन करना कदापि सम्भव नहीं है। मैं आपसे निवेदन करता हूँ कि आप प्रसन्न होकर मुझे वन जाने की आज्ञा प्रदान करें ताकि मुझे यह सन्तोष रहे कि मैंने माता और पिता दोनों ही की आज्ञा का पालन किया है।"

फिर वे लक्ष्मण से सम्बोधित हुये और कहा, "लक्ष्मण! तुम्हारे साहस, पराक्रम, शौर्य और वीरता पर मुझे गर्व है। मैं जानता हूँ कि तुम मुझसे अत्यंत स्नेह करते हो। किन्तु हे सौमित्र! धर्म का स्थान सबसे ऊपर है। पिता की आज्ञा की अवहेलना करके मुझे पाप, नरक और अपयश का भागी बनना पड़ेगा। इसलिये हे भाई! तुम क्रोध और क्षोभ का परित्याग करो और मेरे वन गमन में बाधक मत बनो।"

राम के दृढ़ निश्चय को देखकर अपने आँसुओं को पोंछती हुई कौशल्या बोलीं, "वत्स! यद्यपि तुम्हें वन जाने की आज्ञा देते हुये मेरा हृदय चूर-चूर हो रहा है किन्तु यदि मुझे भी अपने साथ ले चलने की प्रतिज्ञा करो तो मैं तुम्हें वन जाने की आज्ञा दे सकती हूँ।"

राम ने संयमपूर्वक कहा, "माता! पिताजी इस समय अत्यन्त दुःखी हैं और उन्हें आपके प्रेमपूर्ण सहारे की आवश्यकता है। ऐसे समय में यदि आप भी उन्हें छोड़ कर चली जायेंगी तो उनकी मृत्यु में किसी प्रकार का सन्देह नहीं रह जायेगा। मेरी आपसे प्रार्थना है कि उन्हें मृत्यु के मुख में छोड़कर आप पाप का भागी न बनें। उनके जीवित रहते तक उनकी सेवा करना आपका पावन कर्तव्य है। आप मोह को त्याग दें और मुझे वन जाने की आज्ञा दें। मुझे प्रसन्नतापूर्वक विदा करें, मैं वचन देता हूँ कि चौदह वर्ष की अवधि बीतते ही मैं लौटकर आपके दर्शन करूँगा।"

धर्मपरायण राम के युक्तियुक्त वचनों को सुनकर अश्रुपूरित माता कौशल्या ने कहा, "अच्छा वत्स! मैं तुम्हें वनगमन की आज्ञा प्रदान करती हूँ। परमात्मा तुम्हारे वनगमन को मंगलमय करें।"

फिर माता ने तत्काल ब्राह्मणों से हवन कराया और राम को हृदय से आशीर्वाद देते हुये विदा कि|

सोमवार, 26 मार्च 2012

राम का वनवास - अयोध्याकाण्ड (5)


राम ने अपने पिता दशरथ एवं माता कैकेयी के चरणस्पर्श किये। राम को देखकर महाराज ने एक दीर्घ श्‍वास और केवल "हे राम!" कहा फिर अत्यधिक निराश होने के कारण चुप हो गये। उनके नेत्रों में अश्रु भर आए। विनम्र स्वर में राम ने कैकेयी से पूछा, "माता! पिताजी की ऐसी दशा का क्या कारण है? कहीं वे मुझसे अप्रसन्न तो नहीं हैं? यदि वे मुझसे अप्रसन्न हैं तो मेरा क्षणमात्र भी जीना व्यर्थ है।"


कैकेयी बोलीं, "वत्स! महाराज तुमसे अप्रसन्न तो हो ही नहीं सकते। किन्तु इनके हृदय में एक विचार आया है जो कि तुम्हारे विरुद्ध है। इसीलिये ये तुमसे संकोचवश कह नहीं पा रहे हैं। देवासुर संग्राम के समय इन्होंने मुझे दो वर देने का वचन दिया था। अवसर पाकर आज मैंने इनसे वे दोनों वर माँग लिये हैं। अब तुम्हारे पिता को अपनी प्रतिज्ञा का निर्वाह करने के लिए तुम्हारी सहायता की आवश्यकता है। यदि तुम प्रतिज्ञा करोगे कि जो कुछ मैं कहूँगी, उसका तुम अवश्य पालन करोगे तो मैं तुम्हें उन वरदानों से अवगत करा सकती हूँ।"

राम बोले, "हे माता! पिता की आज्ञा से मैं अपने प्राणों की भी आहुति दे सकता हूँ। मैं आपके चरणों की सौगन्ध खाकर प्रतिज्ञा करता हूँ कि आपके वचनों का अवश्य पालन करूँगा।"

राम की प्रतिज्ञा से सन्तुष्ट होकर कैकेयी ने कहा, "वत्स! मैंने पहले वर से भरत के लिये अयोध्या का राज्य और दूसरे से तुम्हारे लिये चौदह वर्ष का वनवास माँगा है। अतः अब तुम अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार तत्काल वक्कल धारण करके वन को प्रस्थान करो। तुम्हारे मोह के कारण ही महाराज दुःखी हो रहे हैं इसलिए तुम्हारे वन को प्रस्थान के पश्चात् ही भरत का राज्याभिषेक होगा। मुझे पूर्ण विश्वास है कि तुम अपनी प्रतिज्ञा का पालन करके अपने पिता को पापरूपी सागर से अवश्य मुक्ति दिलाओगे।"

राम ने दुःख और शोक से रहित होकर कैकेयी के वचनों को सुना और मधुर मुस्कान के साथ बोले, "माता! बस इस छोटी सी बात के लिये ही आप और पिताजी इतने परेशान हैं? मैं तत्काल वन को चला जाता हूँ। यही मेरी सत्य प्रतिज्ञा है।"

महाराज दशरथ राम और कैकेयी के इस संवाद को सुन रहे थे। इसे सुनकर वे एक बार फिर मूर्छित हो गये। राम ने मूर्छित पिता और कैकेयी के चरणों में मस्तक नवाया और चुपचाप उस प्रकोष्ठ से बाहर चले गये|

बुधवार, 21 मार्च 2012

कैकेयी कोपभवन में - अयोध्याकाण्ड (3)


राम के राजतिलक का शुभ समाचार अयोध्या के घर-घर में पहुँच गया। पूरी नगरी में प्रसन्नता की लहर फैल गई। घर-घर में मंगल मनाया जाने लगा। स्त्रियाँ मधुर स्वर में रातभर मंगलगान करती रहीं। सूर्योदय होने पर नगरवासी अपने-अपने घरों को ध्वाजा-पताका, वन्दनवार आदि से सजाने लगे। हाट बाजारों को भाँति भाँति के सुगन्धित एवं रंग-बिरंगे पुष्पों से सजाया गया। गवैये, नट, नर्तक आदि अपने आश्‍चर्यजनक करतब दिखाकर नगरवासियों का मनोरंजन करने लगे। स्थान स्थान में कदली-स्तम्भों के द्वार बनाये गए। ऐसा प्रतीत होने लगा कि अयोध्या नगरी नववधू के समान ऋंगार कर राम के रूप में वर के आगमन की प्रतीक्षा कर रही है।


किन्तु राम के राजतिलक का समाचार सुनकर एवं नगर की इस अद्भुत् श्रृंगार को देखकर रानी कैकेयी कि प्रिय दासी मंथरा के हृदय को असहनीय आघात लगा। वह सोचने लगी कि यदि कौशल्या का पुत्र राजा बन जायेगा तो कौशल्या को राजमाता का पद प्राप्त हो जायेगा और कौशल्या की स्थिति अन्य रानियों की स्थिति से श्रेष्ठ हो जायेगी। ऐसी स्थिति में उसकी दासियाँ भी स्वयं को मुझसे श्रेष्ठ समझने लगेंगीं। वर्तमान में कैकेयी राजा की सर्वाधिक प्रिय रानी है और इसी कारण से महारानी कैकेयी का ही राजमहल पर शासन चलता है। कैकेयी की दासी होने का श्रेय प्राप्त होने के कारण राजप्रासाद की अन्य दासियाँ मेरा सम्मान करती हैं। यदि कौशल्या राजमाता बन जायेगी तो मेरा यह स्थान मुझसे छिन जायेगा। मैं यह सब कुछ सहन नहीं कर सकती। अतः इस विषय में अवश्य ही मुझे कुछ करना चाहिये।

ऐसा विचार करके मंथरा ने अपने प्रासाद में लेटी हुई कैकेयी के पास जाकर कहा, "महारानी! आप सो रही हैं? यह समय क्या सोने का है? क्या आपको पता है कि कल राम का युवराज के रूप में अभिषेक होने वाला है?"

मंथरा के मुख से राम के राजतिलक का समाचार सुनकर कैकेयी को अत्यंत प्रसन्नता हुई। समाचार सुनाने की खुशी में कैकेयी ने मंथरा को पुरस्कारस्वरूप एक बहुमूल्य आभूषण दिया और कहा, "मंथरे! तू अत्यन्त प्रिय समाचार ले कर आई है। तू तो जानती ही है कि राम मुझे बहुत प्रिय है। इस समाचार को सुनाने के लिये तू यदि और भी जो कुछ माँगेगी तो मैं वह भी तुझे दूँगी।"

कैकेयी के वचनों को सुन कर मंथरा अत्यन्त क्रोधित हो गई। उसकाका तन-बदन जल-भुन गया। पुरस्कार में दिये गये आभूषण को फेंकते हुये वो बोली, "महारानी आप बहुत नासमझ हैं। स्मरण रखिये कि सौत का बेटा शत्रु के जैसा होता है। राम का अभिषेक होने पर कौशल्या को राजमाता का पद मिल जायेगा और आपकी पदवी उसकी दासी के जैसी हो जायेगी। आपका पुत्र भरत भी राम का दास हो जायेगा। भरत के दास हो जाने पर पर आपकी बहू को भी एक दासी की ही पदवी मिलेगी।"

यह सुनकर कैकेयी ने कहा, "मंथरा राम महाराज के ज्येष्ठ पुत्र हैं और प्रजा में अत्यन्त लोकप्रिय हैं। अपने सद्‍गुणों के कारण वे सभी भाइयों से श्रेष्ठ भी हैं। राम और भरत भी एक दूसरे को भिन्न नहीं मानते क्योंकि उनके बीच अत्यधिक प्रेम है। राम अपने सभी भाइयों को अपने ही समान समझते हैं इसलिये राम को राज्य मिलना भरत को राज्य मिलने के जैसा ही है।"

यह सब सुनकर मंथरा और भी दुःखी हो गई। वह बोली, "किन्तु महारानी! आप यह नहीं समझ रही हैं कि राम के बाद राम के पुत्र को ही अयोध्या का राजसिंहासन प्राप्त होगा तथा भरत को राज परम्परा से अलग होना पड़ जायेगा। यह भी हो सकता है कि राज्य मिल जाने पर राम भरत को राज्य से निर्वासित कर दें या यमलोक ही भेज दें।"

अपने पुत्र के अनिष्ट की आशंका की बात सुनकर कैकेयी का हृदय विचलित हो उठा। उसने मंथरा से पूछा, "ऐसी स्थिति में मुझे क्या करना चाहिये?"

मंथरा ने उत्तर दिया, "आपको स्मरण होगा कि एक बार देवासुर संग्राम के समय महाराज दशरथ आपको साथ लेकर युद्ध में इन्द्र की सहायता करने के लिये गये थे। उस युद्ध में असुरों के अस्त्र-शस्त्रों से महाराज दशरथ का शरीर जर्जर हो गया था और वे मूर्छित हो गये थे। उस समय सारथी बन कर आपने उनकी रक्षा की थी। आपकी उस सेवा के बदले में उन्होंने आपको दो वरदान दो वरदान प्रदान किया था जिसे कि आपने आज तक नहीं माँगा है। अब आप एक वर से भरत का राज्याभिषेक और दूसरे वर से राम के लिये चौदह वर्ष तक का वनवास माँग कर अपना मनोरथ सिद्‍ध कर लीजिये। शीघ्रातिशीघ्र आप मलिन वस्त्र धारण कर कोपभवन में चले जाइये। महाराज आपको बहुत अधिक चाहते हैं इसलिए वे अवश्य ही आपको मनाने का प्रयत्न करेंगे और आपके द्वारा माँगने पर उन दोनों वरों को देने के लिये तैयार हो जायेंगे। किन्तु स्मरण रखें कि वर माँगने के पूर्व उनसे वचन अवश्य ले लें जिससे कि वे उन वरदानों को देने के लिये बाध्य हो जायें।"

मंथरा के कथन के अनुसार कैकेयी कोपभवन में जाकर लेट गई|

मंगलवार, 20 मार्च 2012

राजतिलक की तैयारी - अयोध्याकाण्ड (2)


दूसरे दिन राजा दशरथ के दरबार में सभी देशों के राजा लोग उपस्थित थे। सभी को सम्बोधत करते हुये दशरथ ने कहा, "हे नृपगण! मैं अपनी और अयोध्यावासियों की ओर से आप सभी का हार्दिक स्वागत करता हूँ। आपको ज्ञात ही है कि अयोध्या नगरी में अनेक पीढ़ियों से इक्ष्वाकु वंश का शासन चलता आ रहा है। इस परम्परा को निर्वाह करते हुए मैं अब अयोध्या का शासन-भार अपने सभी प्रकार से योग्य, वीर, पराक्रमी, मेधावी, धर्मपरायण और नीतिनिपुण ज्येष्ठ पुत्र राम को सौंपना चाहता हूँ। अपने शासन काल में मैंने अपनी प्रजा को हर प्रकार से सुखी और सम्पन्न बनाने का प्रयास किया है। अब मैं वृद्ध हो गया हूँ और इसी कारण से मैं प्रजा के कल्याण के लिये अधिक सक्रिय रूप से कार्य करने में स्वयं को असमर्थ पा रहा हूँ। मुझे विश्‍वास है कि राम अपने कौशल और बुद्धिमत्ता से प्रजा को मुझसे भी अधिक सुखी रख सकेगा। अपने इस विचार को कार्यान्वित करने के लिये मैंने राज्य के ब्राह्मणों, विद्वानों एवं नीतिज्ञों से अनुमति ले ली है। वे सभी मेरे इस विचार से सहमत हैं और उन्हे विश्वास है कि राम शत्रुओं के आक्रमणों से भी देश की रक्षा करने में सक्षम है। राम में राजत्व के सभी गुण विद्यमान हैं। उनकी द‍ृष्टि में राम अयोध्या का ही नहीं वरन तीनों लोकों का राजा होने की भी योग्यता रखता है। इस राज्य के लिये आप लोगों की सम्मति भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। अतः आप लोग इस विषय में अपनी सम्मति प्रदान करें।"


महाराज दशरथ के इस प्रकार कहने पर वहाँ पर उपस्थित सभी राजाओं ने प्रसन्नतापूर्वक राम के राजतिलक के लिये अपनी सम्मति दे दी।

राजा दशरथ ने कहा, "आप लोगों की सम्मति पाकर मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ। क्योंकि चैत्र मास - जो सब मासों में श्रेष्ठ मधुमास कहलाता है - चल रहा है, कल ही राम के राजतिलक के उत्सव का आयोजन किया जाय। मैं मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठ जी से प्रार्थना करता हूँ कि वे राम के राजतिलक की तैयारी का प्रबन्ध करें।"

राजा दशरथ की प्रार्थना को स्वीकार कर के राजगुरु वशिष्ठ जी ने सम्बन्धित अधिकारियों को आज्ञा दी कि वे यथाशीघ्र स्वर्ण, रजत, उज्वल माणिक्य, सुगन्धित औषधियों, श्‍वेत सुगन्धियुक्त मालाओं, लाजा, घृत, मधु, उत्तम वस्त्रादि एकत्रित करने का प्रबन्ध करें। चतुरंगिणी सेना को सुसज्जित रहने का आदेश दें। स्वर्ण हौदों से सजे हुये हाथियों, श्‍वेत चँवरों, सूर्य का प्रतीक अंकित ध्वजाओं और परम्परा से चले आने वाले श्‍वेत निर्मल छत्र, स्वर्ण निर्मित सौ घोड़े, स्वर्ण मण्डित सींगों वाले साँड, सिंह की अक्षुण्ण त्वचा आदि का शीघ्र प्रबन्ध करें। सुसज्जित वेदी का निर्माण करें। इस प्रकार अन्य और जितने भी आवश्यक निर्देश थे, उन्होंने सम्बंधित अधिकारियों को दे दिये।

इसके पश्‍चात् राजा दशरथ ने प्रधानमन्त्री सुमन्त से राम को शीघ्र लिवा लाने के लिए कहा। महाराज की आज्ञा के अनुसार सुमन्त रामचन्द्र जी को रथ में अपने साथ बिठा कर लिवा लाये। अत्यन्त श्रद्धा के साथ राम ने पिता को प्रणाम किया और उपस्थित जनों का यथोचित अभिवादन किया। राजा दशरथ ने राम को अपने निकट बिठाया और मुस्कुराते हुये कहा, "हे राम! तुम्हारे गुणों से समस्त प्रजाजन प्रसन्न है। इसलिये मैंने निश्‍चय किया है किस मैं कल तुम्हारा राजतिलक दर दूँगा। इस विषय में मैंने ब्राह्मणों, मन्त्रियों, विद्वानों एवं समस्त राजा-महाराजाओं की भी सम्मति प्राप्त कर लिया है। इस अवसर पर मैं तम्हें अपने अनुभव से प्राप्त कुछ सीख देना चाहता हूँ। सबसे पहली बात तो यह है कि तुम कभी विनयशीलता का त्याग मत करना। इन्द्रियों को सदा अपने वश में रखना। अपने मन्त्रियों के हृदय में उठने वाले विचारों को प्रत्यक्ष रूप से जानने और समझने का प्रयास करना। प्रजा को सदैव सन्तुष्ट और सुखी रखने का प्रयास करना। यदि मेरी कही इन बातों का तुम अनुसरण करोगे तो तुम सब प्रकार की विपत्तियों से सुरक्षित रहोगे और लोकप्रियता अर्जित करते हुये निष्कंटक राजकाज चला सकोगे। यह सिद्धांत की बात है कि जो राजा अपनी प्रजा को प्रसन्न और सुखी रखने के लिये सदैव प्रयत्‍नशील रहता है, उसका संसार में कोई शत्रु नहीं होता। यदि कोई व्यक्ति स्वार्थवश उसका अनिष्ट करना भी चाहे तो भी वह अपने उद्देश्य में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता क्योंकि ऐसे राजा को अपनी प्रजा एवं मित्रों का हार्दिक समर्थन प्राप्त होता है।"

पिता से यह उपयोगी शिक्षा प्राप्त करके राम ने स्वयं को धन्य माना और उन्होंने अपने पिता को आश्‍वासन दिया कि वे अक्षरशः इन बातों का पालन करेंगे।

दास-दासियों ने राजा के मुख से राम का राजतिलक करने की बात सुनी तो वे प्रसन्नता से उछलते हुये महारानी कौशल्या के पास जाकर उन्हें यह शुभ संवाद सुनाया जिसे सुनकर उनका रोम-रोम पुलकित हो गया। इस शुभ समाचार के सुनाने वालों को उन्होंने बहुत सा स्वर्ण, वस्त्राभूषण देकर मालामाल कर दिया|

रविवार, 18 मार्च 2012

राम के राजतिलक की घोषणा - अयोध्याकाण्ड (1)


कैकेय पहुँच कर भरत अपने भाई शत्रुघ्न के साथ आनन्दपूर्वक अपने दिन व्यतीत करने लगे। भरत के मामा अश्वपति उनसे उतना ही प्रेम करते थे जितना कि उनके पिता राजा दशरथ। मामा के इस स्नेह के कारण उन्हें यही लगता था मानो वे ननिहाल में न होकर अयोध्या में हों। इतने पर भी उन्हें समय-समय पर अपने पिता का स्मरण हो आता था और वे उनके दर्शनों के लिये आतुर हो उठते थे। राजा दशरथ की भी यही दशा थी। यद्यपि राम और लक्ष्मण उनके पास रहते हुये सदैव उनकी सेवा में संलग्न रहते थे, फिर भी वे भरत और शत्रुघ्न से मिलने के लिये अनेक बार व्याकुल हो उठते थे।


समय व्यतीत होने के साथ राम के सद्बुणों का निरन्तर विस्तार होते जा रहा था। राजकाज से समय निकाल कर आध्यात्मिक स्वाध्याय करते थे। वेदों का सांगोपांग अध्ययन करना और सूत्रों के रहस्यों का समझ कर उन पर मनन करना उनका स्वभाव बन गया था। दुखियों पर दया और दुष्टों का दमन करने के लिये सदैव तत्पर रहते थे। वे जितने दयालु थे, उससे भी कई गुना कठोर वे दुष्टों को दण्ड देने में थे। वे न केवल मन्त्रियों की नीतियुक्त बातें ही सुनते थे बल्कि अपनी ओर से भी उन्हें तर्क सम्मत अकाट्य युक्तियाँ प्रस्तुत करके परामर्श भी दिया करते थे। अनेक युद्धों में उन्होंने सेनापति का दायित्व संभालकर दुर्द्धुर्ष शत्रुओं को अपने पराक्रम से परास्त किया था। जिस स्थान में भी वे भ्रमण और देशाटन के लिये गये वहाँ के प्रचलित रीति-रिवाजों, सांस्कृतिक धारणाओं का अध्ययन किया, उन्हें समझा और उनको यथोचित सम्मान दिया। उनके क्रिया कलापों ऐसे थे कि लोगों को विश्वास हो गया कि रामचन्द्र क्षमा में पृथ्वी के समान, बुद्धि-विवेक में बृहस्पति के समान और शक्ति में साक्षात् देवताओं के अधिपति इन्द्र के समान हैं। न केवल प्रजा वरन स्वयं राजा दशरथ के मस्तिष्क में यह बात स्थापित हो गई थी कि जब भी राम अयोध्या के सिंहासन को सुशोभित करेंगे, उनका राज्य अपूर्व सुखदायक होगा और वे अपने समय के सर्वाधिक योग्य एवं आदर्श नरेश सिद्ध होंगे।

राजा दशरथ अब शीघ्रातिशीघ्र राम का राज्याभिषेक कर देना चाहते थे। उन्होंने मन्त्रियों को बुला कर कहा, "हे मन्त्रिगण! अब मैं वृद्ध हो चला हूँ और रामचन्द्र राजसिंहासन पर बैठने के योग्य हो गये हैं। मेरी प्रबल इच्छा है कि शीघ्रातिशीघ्र राम का अभिषेक कर दूँ। अपने इस विचार पर आप लोगों की सम्मति लेने के लिये ही मैंने आप लोगों को यहाँ पर बुलाया है, कृपया आप सभी अपनी सम्मति दीजिये।" राजा दशरथ के इस प्रस्ताव को सभी मन्त्रियों ने प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार किया। शीघ्र ही राज्य भर में राजतिलक की तिथि की घोषणा कर दी गई और देश-देशान्तर के राजाओं को इस शुभ उत्सव में सम्मिलित होने के लिये निमन्त्रण पत्र भिजवा दिये गये। थोड़े ही दिनों में देश-देश के राजा महाराजा, वनवासी ऋषि-मुनि, अनेक प्रदेश के विद्वान तथा दर्शगण इस अनुपम उत्सव में भाग लेने के लिये अयोध्या में आकर एकत्रित हो गये। आये हुये सभी अतिथियों का यथोचित स्वागत सत्कार हुआ तथा समस्त सुविधाओं के साथ उनके ठहरने की व्यस्था कर दी गई।

निमन्त्रण भेजने का कार्य की उतावली में मन्त्रीगण मिथिला पुरी और महाराज कैकेय के पास निमन्त्रण भेजना ही भूल गये। राजतिलक के केवल दो दिवस पूर्व ही मन्त्रियों को इसका ध्यान आया। वे अत्यन्त चिन्तित हो गये और डरते-डरते अपनी भूल के विषय में महाराज दशरथ को बताया। यह सुनकर महाराज को बहुत दुःख हुआ किन्तु अब कर ही क्या सकते थे? सभी अतिथि आ चुके थे इसलिये राजतिलक की तिथि को टाला भी नहीं जा सकता था। अतएव वे बोले, "अब जो हुआ सो हुआ, परन्तु बात बड़ी अनुचित हुई है। अस्तु वे लोग घर के ही आदमी हैं, उन्हें बाद में सारी स्थिति समझाकर मना लिया जायेगा।

शनिवार, 17 मार्च 2012

अयोध्या में आगमन - बालकाण्ड (24)



परशुराम के जाने के पश्चात् पत्नियोंसहित राजकुमारों, गुरु वशिष्ठ, अन्य ऋषि मुनियों, मन्त्रियों तथा परिजनों के साथ महाराज दशरथ अयोध्या की ओर अग्रसर हुए। मन्त्रियों ने शीघ्र ही दो शीघ्रगामी दूतों को सभी के वापस आने की सूचना देने के लिये अयोध्या भेज दिये। दूतों के अयोध्या पहुँचने तथा सूचना देने पर नगर के सभी चौराहों, अट्टालिकाओं, मन्दिरों एवं महत्वपूर्ण मार्गों को नाना भाँति की रंग-बिरंगी ध्वजा-पताकओं से सजाया गया। राजमार्ग पर बड़े बड़े सुरम्य द्वार बनाये गये और उन्हें तोरणों से सजाया गया। मार्गों में केवड़े और गुलाब आदि का जल छिड़का गया। सुन्दर चित्रों, मांगलिक प्रतीकों वन्दनवारों आदि से हाट बाजारों को भी बड़ी सुरुचि के साथ सजाया गया। एक अभूतपूर्व उल्लास छा गया सारी अयोध्या में। अनेक प्रकार के वाद्य बजने लगे। घर-घर में मंगलगान होने लगे।

यह ज्ञात होने पर कि बारात लौटकर अयोध्या के निकट पहुँच गई है तथअ नगर के मुख्य द्वार में प्रवेश करने ही वाली है, सुन्दर, सुकुमार, रूपवती, लावण्मयी कुमारियाँ अनेक रत्नजटित वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर आगन्तुकों का स्वागत करने के लिये आरतियाँ लेकर पहुँच गईं। महाराज दशरथ और राजकुमारों के, स्वर्णिम फूलों से सुसज्जित सोने के हौदे वाले हाथियों पर बैठकर, नगर में प्रविष्ट होने पर चारों ओर उनकी जयजयकार होने लगी। ऊँची ऊँची अट्टालिकाओं पर बैठी हुई सुन्दर सौभाग्वती रमणियाँ उन पर पुष्पवर्षा करने लगीं। अयोध्या की नववधुओं - सीता, उर्मिला, माण्डवी और श्रुतकीर्ति - को देखने के लिये अट्टालिकाओं की खिड़कियाँ और छज्जे दर्शनोत्सुक युवतियों, कुमारियों से ही नहीं वरन प्रौढ़ाओं एवं वृद्धाओं से भी खचाखच भर गये।

सवारी के राजप्रसाद में पहुँचने पर राजा दशरथ की समस्त रानियों ने द्वार पर आकर अपनी वधुओं की अगवानी की। महारानी कौशल्या, कैकेयी एवं सुमित्रा ने आगे बढ़कर बारी-बारी से चारों वधुओं को अपने हृदय से लगाया और असंख्य हीरे मोती उन पर न्यौछावर करके उपस्थित याचकों में बाँट दिये। फिर मंगलाचार के गीत गाती हुईं चारों राजकुमारों और उनकी अर्द्धांगिनियों को राजप्रासाद के अन्दर ले आईं। इस अपूर्व आनन्द के अवसर पर महाराज दशरथ ने दानादि के लिये कोष के द्वार खोल दिये और मुक्त हस्त से नगरवासी ब्राह्मणों को भूमि, स्वर्ण, रजत, हीरे, मोती, रत्न, गौएँ, वस्त्रादि दान में दिये।

राजकुमारों को राजप्रासाद में रहते कुछ दिन आनन्दपूर्वक व्यतीत हो जाने पर महाराज दशरथ ने भरत को बुलाकर कहा, "वत्स! तुम्हारे मामा युधाजित को आये हुये पर्याप्त समय हो गया है। तुम्हारे नाना-नानी तुम्हें देखने के लिये आकुल हो रहे हैं। अतः तुम कुछ दिनों के लिये अपने ननिहाल चले जाओ।" पिता के आदेशानुसार भरत और शत्रुघ्न ने अपनी माताओं तथा राम और लक्ष्मण से विदा लेकर अपने मामा युधाजित के साथ कैकेय देश के लिये प्रस्थान किया।

राम ने अपने सौम्य स्वभाव, दयालुता और सदाचरण से न केवल अपने प्रासाद के निवासियों का बल्कि समस्त पुर के स्त्री-पुरुषों का हृदय जीत लिया था। वे सबकी आँखों के तारे थे और अत्यंत लोकप्रिय हो गये थे। परिवार के सदस्य उनकी विनयशीलता, मन्त्रीगण उनकी नीतिनिपुणता, नगरनिवासी उनके शील-सौजन्य और सेवकगण उनकी उदारता का बखान करते नहीं थकते थे। इधर सीता के मधुभाषी स्वभाव, सास-ससुर की सेवा, पातिव्रत्य धर्म आदि सद्गुणों ने भी सभी लोगों के मन को मोह लिया। नगर निवासी राम और सीता की युगल जोड़ी को देखकर अत्यन्त प्रसन्न होते थे। उनके प्रेम और सद्व्यवहार की चर्चा घर-घर में की जाती थी।
॥बालकाण्ड समाप्त॥

गुरुवार, 15 मार्च 2012

परशुराम जी का आगमन - बालकाण्ड (23)


राजा दशरथ ने राजकुमारों, उनकी पत्नियों, ऋषि-महर्षियों, मन्त्रियों एवं परिजनों के साथ अयोध्या के लिये प्रस्थान किया। प्रस्थान करते ही सभी ओर भयंकर शब्द करने वाले पक्षियों आवाजें सुनाई देने लगीं। पृथ्वी पर विचरण करने वाले वन्य पशु उनकी बाँईं ओर दौड़ने लगे। इस पर दशरथ ने वशिष्ठ जी से कहा, "गुरुदेव! यह कैसी माया है। जहाँ पक्षियों का भयंकर स्वर अपशकुन का सूचक है वहीं मृगों का बाँयें होकर जाना शुभ शकुन की सूचना देता है। दोनों प्रकार के शकुन एक साथ क्यों हो रहे हैं?"


महाराज दशरथ के इस प्रश्न के उत्तर में वशिष्ठ जी बोले, "पक्षियों के भयंकर ध्वनि से ज्ञात होता है कि कोई भय उत्पन्न करने वाली घटना घटने वाली है और मृग आदि पशुओं के इस प्रकार जाने से पता चलता है कि वह भयानक घटना सरलता से शान्त हो जायेगी। इसलिये आप किसी प्रकार की चिन्ता न करें।"

यह वार्तालाप अभी चल ही रहा था कि बड़े जोरों की आँधी आई परिणामस्वरू वृक्ष पृथ्वी पर गिरने लगे। तभी राजा दशरथ को भृगुकुल के ऋषि परशुराम दृष्टिगत हुए। उनकी वेशभूषा बड़ी भयंकर थी। बड़ी बड़ी जटायें उनके तेजस्वी मुख पर बिखरी हुई थीं नेत्रों में क्रोध की लालिमा थी। कन्धे पर कठोर फरसा और हाथों में धनुष बाण थे। ऋषियों ने आगे बढ़ कर उनका स्वागत किया और इस स्वागत को स्वीकार करने के उपरान्त वे श्री रामचन्द्र से बोले़ "दशरथनन्दन राम! हमें ज्ञात हुआ है कि तुम बड़े पराक्रमी हो और तुमने शिव जी के धनुष को भंग कर दिया है और इस प्रकार तुमने अपूर्व ख्याति प्राप्त की है। मैं तुम्हारे लिये एक और अच्छा धनुष लाया हूँ। यह धनुष साधारण नहीं है बल्कि जमदग्निकुमार परशुराम का है। इस पर बाण चढ़ाकर तुम अपने शौर्य का परिचय दो। तुम्हारे बल और शौर्य को देखने के पश्चात् मैं तुमसे द्वन्द्व युद्ध करूँगा।

परशुराम की बात सुनकर राजा दशरथ विनीत स्वर मे बोले, "भगवन्! आप वेदविद् स्वाध्यायी ब्राह्मण हैं। क्षत्रियों का विनाश करके आप बहुत पहले ही अपने क्रोध को शान्त कर चुके हैं। आपने इन्द्र के समक्ष प्रतिज्ञा करके अस्त्र-शस्त्र का परित्याग भी कर दिया है। इसलिये हे ऋषिराज! आप इन बालकों को अभय दान दीजिये। यदि आपके हाथों राम मारा गया तो हममें से कोई भी उसके वियोग में जीवित नहीं रह सकेगा।"

परशुराम जी ने दशरथ की बात पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। वे राम से बोले, "राम! संसार में केवल दो ही धनुष सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं। सारा संसार उनका सम्मान करता हैं। विश्वकर्मा ने उन दोनों को स्वयं अपने हाथों से बनाया था। उनमें से एक भगवान शिव के पास था और उसी से भगवान शिव ने त्रिपुरासुर का वध किया था। तुमने उसी धनुष को तोड़ डाला है। दूसरा दिव्य धनुष मेरे हाथ में है। यह भगवान विष्णु का धनुष है। यह भी पिनाक की भाँति ही शक्तिशाली है। एक बार शिव और विष्णु में भयंकर युद्ध हुआ। विष्णु को देवताओं ने श्रेष्ठ मानकर शान्त किया। शान्त होने पर विष्णु ने भृगुवंशी ऋचीक मुनि को धरोहर के रूप में वह धनुष दे दिया। अपने पूर्वपुरुषों से यह धनुष मुझे प्राप्त हुआ है। अब तुम एक क्षत्रिय के नाते इस धनुष को लेकर इस पर बाण चढ़ाओ और सफल होने पर मेरे साथ द्वन्द्व युद्ध करो।"

इस प्रकार से परशुराम के द्वारा बार-बार ललकारे जाने पर रामचन्द्र बोले, "हे भार्गव! मैं ब्राह्मण समझकर आपका सम्मान कर रहा हूँ और आपके समक्ष कुछ विशेष बोल नहीं रहा हूँ। किन्तु आप मेरी इस विनयशीलता को पराक्रमहीनता एवं कायरता समझ रहे हैं और मेरा तिरस्कार कर रहे हैं। लाइये, धनुष बाण मुझे दीजिये।"

यह कह कर उन्होंने झपटकर परशुराम के हाथ से धनुष बाण ले लिये और धनुष पर बाण चढ़ाकर बोले, "हे भृगुनन्दन! ब्राह्मण होने के कारण आप मेरे पूज्य हैं। इसीलिये इस बाण को मैं आप पर नहीं छोड़ सकता। परन्तु धनुष पर चढ़ने के बाद यह बाण कभी निष्फल नहीं जाता। इसका कहीं न कहीं उपयोग करना अनिवार्य हो जाता है। इसलिये मैं इस बाण को छोड़ कर आपकी शीघ्रतापूर्वक सर्वत्र आने-जाने की शक्ति को नष्ट किये देता हूँ।"

श्री राम की बात सुनकर शक्तिहीन हो गए परशुराम जी विनयपूर्वक कहने लगे, "बाण छोड़ने से पूर्व मेरी एक बात सुन लीजिये। क्षत्रियों को नष्ट करके मैंने यह भूमि कश्यप जी को दान में दी थी। उस समय उन्होंने मुझसे कहा था कि अब तुम्हें पृथ्वी पर नहीं रहना चाहिये क्योंकि तुमने पृथ्वी का दान कर दिया है। तभी से मैं गुरुवर कश्यप जी की आज्ञा का पालन करता हुआ कभी भी रात्रि में पृथ्वी पर वास नहीं करता। अतः हे राम! कृपा करके मेरी गमन शक्ति को नष्ट मत करो। मैं मन के समान गति से महेन्द्र पर्वत पर चला जाउँगा। मुझे ज्ञात है कि इस बाण का प्रयोग निष्फल नहीं जाता, इसलिये आप इस बाण के द्वारा उन अनुपम लोकों को नष्ट कर दें जिन पर मैंने अपनी तपस्या से विजय प्राप्त की है। आपने जिस सरलता से इस धनुष पर बाण चढ़ा दिया है, उससे मुझे विश्वास हो गया है कि आप मधु राक्षस का संहार करने वाले साक्षत विष्णु हैं।"

राम ने परशुराम की प्रार्थना को स्वीकार किया और उनके द्वारा तपस्या के बल पर अर्जित समस्त पुण्यलोकों को नष्ट कर दिया। इसके पश्चात् परशुराम जी तपस्या करने के लिये महेन्द्र पर्वत पर चले गये और वहाँ उपस्थित सभी ऋषि-मुनियों सहित राजा दशरथ ने रामचन्द्र की भूरि भूरि प्रशंसा की|

बुधवार, 14 मार्च 2012

विवाह - बालकाण्ड (22)



दान आदि से निवृत होकर महाराज दशरथ मिथिलेश के राजभवन में जाने की तैयारी करने लगे। तभी भरत के मामा अर्थात् राजा कैकेय के पुत्र युधाजित वहाँ आ पहुँचे। अभिवादन तथा कुशल समाचार जानने की औपचारिकता के पश्चात् उन्होंने कैकेय नरेश का सन्देश देते हुये कहा, "महाराज! हमारे पिताजी को भरत को देखने की उत्कट इच्छा हो रही है। अतः कृपा करके आप कुछ दिन के लिये भरत को मेरे साथ उनके ननिहाल भेज दें। इस संदेश को लेकर मैं अयोध्या गया था किन्तु वहाँ पर ज्ञात हुआ कि आप जनक पुरी गये हुये हैं इसलिए मैं भी यहाँ आ गया। महारज दशरथ ने युधाजित का समुचित सत्कार किया और उन्हें सारा वृत्तान्त सुनाया फिर उन्हें लेकर ऋषियों, मन्त्रियों एवं बन्धु-बान्धवों सहित यज्ञशाला के द्वार पर पहुँचे। थोड़ी देर बाद नाना प्रकार के आभूषणों को धारण किये हुये रामचन्द्र अपने भाइयों भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न के साथ उनके पास आकर खड़े हो गये। गुरु वशिष्ठ ने जनक के पास जाकर कहा, "हे विदेहराज! महाराज दशरथ अपने पुत्रों के साथ अन्दर आने की अनुमति चाहते हैं।"

इस पर महाराज जनक बोले, "हे महर्षि! इस प्रकार अनुमति मांग कर वे मुझे क्यों लज्जित कर रहे हैं। वे अयोध्या के ही नहीं मिथिला पुरी के भी स्वामी हैं और मैं तो उनका अकिंचन दास हूँ। क्या कभी स्वामी अपने सेवक से आज्ञा माँगता है? उनसे कहिये चारों कन्याएँ विवाह वेदी पर प्रतीक्षारत हैं। वे निःसंकोच अन्दर पधारने का कष्ट करें। शुभ लग्न का समय भी हो रहा है। मैं स्वयं चलकर उन्हें सादर ले आता हूँ। इतना कहकर वे महाराज दशरथ के पास पहुँचे और उन सबको यज्ञ स्थल मे ले आये। सबको यथोचित आसन देकर जनक ने उनकी पूजा की। फिर वशिष्ठ जी से बोले, "हे ब्रह्मर्षि! आप इन ऋषि-मुनियों के साथ विवाह कार्य सम्पन्न कराइये। आपसे अधिक योग्य पुरोहित और कौन हो सकता है?"


गुरु वशिष्ठ, महर्षि विश्वामित्र और मिथिला के राजपुरोहित शतानन्द विवाह कार्य सम्पन्न कराने लगे। सबसे पहले वैदिक विधि के अनुसार विवाह के लिये वेदी का निर्माण कराया गया। फिर अनेक प्रकार के सुगन्धयुक्त फूलों से उसे सजाया गया। कुछ दूरी पर चारों ओर गमले सजाये गये जिनमें चित्त को प्रसन्न करने वाली सुगन्धित रंग बिरंगे फूल लगे हुये थे। वेदी के निकट कई स्थानों पर स्वर्ण पात्रों में धूप, केशर, नैवेद्य, अक्षत, घी, दही, शहद आदि सामग्री रखी हुई थी। यज्ञ सम्पन्न कराने वाले महानुभावों के लिये कुश के आसन बिछा दिया गये। गुरु वशिष्ठ एवं अन्य महर्षियों ने वेद मन्त्रों का उच्चारण करते हुये हवन कुण्ड में अग्नि प्रज्जवलित की। फिर वशिष्ठ जी के आदेश पर राजप्रासाद की महिलाओं ने जनककुमारी सीता को लाकर यज्ञ वेदी के निकट खड़ा कर दिया। उस समय सीता जी का मुखमण्डल प्रातःकालीन बाल रवि की भाँति अनुपम सौन्दर्य से देदीप्यमान हो रहा था। नख से शिख तक वे बहुमूल्य रत्नजटित आभूषणों से सजी हुई थीं। संक्षेप में कहा जाय तो उस समय सीता की छवि को देखकर करोड़ रतियों का संयुक्त रूप भी नगण्य प्रतीत होता था। सीता इन सब बातों से अनजान दृष्टि झुकाये एकटक पृथ्वी को निहार रही थीं।

महाराज जनक अपनी लाडली पुत्री सीता को श्री रामचन्द्र के निकट खड़ा करके विनीत स्वर में बोले, "हे रघुकुलतिलक रामचन्द्र! मैं अपनी पुत्री सीता का हाथ आपके सशक्त हाथों में सौंपते हुये यह कामना करता हूँ कि मेरी पुत्री आपकी अर्द्धांगिनी होकर सदैव छाया की भाँति आपका अनुसरण करती रहे। अतः हे कौशल्याकुमार! इसे आप अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कीजिये। आज से यह आपके सुख-दुःख की संगिनी हुई। यह कहकर राजा जनक ने अंजलि में संकल्प के लिये लिया हुआ जल वेद मन्त्रों से पवित्र करके हृदय की सम्पूर्ण भावनाओं के साथ छोड़ दिया। महिलायें मंगलगान करने लगीं। मृदंग दुंदुभी तथा नाना प्रकार के वाद्य यन्त्रों का सुमधुर स्वर चारों ओर गूंजकर इस हर्ष पूर्ण घटना की सूचना देने लगा।

राम और सीता के विवाह के सम्पन्न हो जाने के पश्चात् लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न का विवाह उर्मिला, माण्डवी और श्रुतकीर्ति के साथ वैदिक विधि विधान से सम्पन्न कराया गया। राजा जनक अपने नेत्रों मे स्नेहपूर्ण अश्रु भर कर बोले, "हे अयोध्या के राजकुमारों! आप चारों भाई सूर्यकुल के गौरव, पराक्रमी, धर्मपरायण, तेजस्वी, सौम्य, विद्वान एवं सदाचार के गुणों से मण्डित हैं। जनक पुरी के इस राजकुल की हार्दिक कामना है कि उसकी ये चारों कन्याएँ गुण, कर्म, स्वभाव से आपके अनुकूल बनकर सब प्रकार से आपकी सुयोग्य अर्द्धांगिनियाँ सिद्ध हों। इसके पश्चात् वशिष्ठ जी की आज्ञा से चारों राजकुमारों ने अपने अपनी नवविवाहित पत्नियों के साथ अग्नि की प्रदक्षिणा की।

विवाह सम्पन्न होने के पश्चात् महाराज दशरथ समस्त मन्त्रियों, ऋषि-मुनियों और सपत्नीक राजकुमारों के साथ अपने ठहरने के स्थान पर चले गये। जनक पुरी में रात्रि विश्राम करके प्रातःकाल मुनि विश्वामित्र विदा लेकर उत्तराखण्ड की ओर चले गये। महाराज जनक ने दहेज के रूप में असंख्य दास दासियाँ, हाथी, घोड़े, गौएँ, रत्नजटित आभूषण, वस्त्र, बर्तन आदि नाना प्रकार की वस्तुयें देकर अयोध्यापति दशरथ को विदा किया और उन्हें पहुँचाने के लिये नगर के द्वार तक आये। वे हाथ जोड़ कर बड़ी नम्रता के साथ बोले, "हे राजन्! मुझे सब प्रकार से अपना दास समझकर मुझ पर कृपा बनाये रखिये। मैं एक बार फिर आभारपूर्वक कहना चाहता हूँ कि आपने मेरे कुल के साथ सम्बंध स्थापित करके मुझे गौरवान्वित किया है। मेरी कन्याएँ आपकी आज्ञाकारिणी एवं दोनों कुलों का गौरव बढ़ाने वाली हों। यही मेरी मनोकामना है।" फिर उन्होंने तथा कुशध्वज ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से चारों कन्याओं को आशीर्वाद देते हुये विदा किया|

मंगलवार, 13 मार्च 2012

विवाह पूर्व की औपचारिकताएँ - बालकाण्ड (21)



इक्ष्वाकु वंश के गुरु वशिष्ठ जी ने श्री राम की वंशावली का वर्णन किया जो इस प्रकार हैः




"आदि रूप ब्रह्मा जी से मरीचि का जन्म हुआ। मरीचि के पुत्र कश्यप हुये। कश्यप के विवस्वान और विवस्वान के वैवस्वतमनु हुये। वैवस्वतमनु के पुत्र इक्ष्वाकु हुये। इक्ष्वाकु ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इस प्रकार इक्ष्वाकु कुल की स्थापना की। इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुये। कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था। विकुक्षि के पुत्र बाण और बाण के पुत्र अनरण्य हुये। अनरण्य से पृथु और पृथु और पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ ...
महाराज जनक के कनिष्ठ भ्राता कुशध्वज सांकाश्यपुरी में रहकर राज्य का प्रबन्ध किया करते थे। सीता के विवाह का समाचार पाकर महाराज वे भी सांकाश्यपुरी से मिथिला आ गये। अपने अग्रज महाराज जनक तथा गुरु शतानन्द जी को प्रणाम करने के पश्चात् वे बोले, "हे भ्राता! अयोध्यापति पधार चुके हैं इसलिये अब विवाह सम्बंधी कार्यों का शुभारम्भ कर देना चाहिये।"

इस पर जनक जी ने शतानन्द जी से कहा, "हे गुरुवर! भाई कुशध्वज के कहने के अनुसार हमें शुभ रीतियों और विधि-विधानों के अनुसार कार्य प्रारम्भ करना चाहिये। अतः आप शीघ्र जाकर अयोध्यापति महाराज दशरथ को राजकुमारों सहित आदरपूर्वक यहाँ लिवा लाइये।" शतानन्द जी जनवासे में महाराज दशरथ के पास पहुँचे और उनसे आदरपूर्वक बोले, "महाराजाधिराज! मिथिला नरेश महाराज जनक अपने कनिष्ठ भ्राता कुशध्वज, परिजनों एवं समस्त मन्त्रियों के साथ आपके दर्शनों के लिये उत्सुक हैं और अपने दरबार में आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। इसलिये आप अपने मन्त्रियों सहित पधार कर उन्हें कृतार्थ कीजिये।"

राजा जनक का संदेश पाकर राजा दशरथ गुरु वशिष्ठ, मन्त्रियों एवं राजकुमारों के साथ वहाँ पहुँचे जहाँ राजा जनक उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। मिथिलापति ने खड़े होकर उन सबका स्वागत किया और उन्हें बैठने के लिये यथोचित स्थान प्रदान किया। जब सब अपने-अपने स्थानों पर विराजमान हो गये तो इक्ष्वाकु वंश के गुरु वशिष्ठ जी ने राजकुमारों का गोत्र पढ़ना प्रारम्भ किया जो इस प्रकार था -

"आदि रूप स्वयंभू ब्रह्मा जी से मरीचि का जन्म हुआ। मरीचि के पुत्र कश्यप हुये। कश्यप के विवस्वान् और विवस्वान् के वैवस्वत मनु हुये। वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु हुये। इक्ष्वाकु ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इस प्रकार इक्ष्वाकु कुल की स्थापना की। इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुये। कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था। विकुक्षि के पुत्र बाण और बाण के पुत्र अनरण्य हुये। अनरण्य से पृथु और पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ। त्रिशंकु के पुत्र धुन्धुमार हुये। धुन्धुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था। युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुये और मान्धाता से सुसन्धि का जन्म हुआ। सुसन्धि के दो पुत्र हुये - ध्रुवसन्धि एवं प्रसेनजित। ध्रुवसन्धि के पुत्र भरत हुये। भरत के पुत्र असित हुये और असित के पुत्र सगर हुये। सगर के पुत्र का नाम असमञ्ज था। असमञ्ज के पुत्र अंशुमान तथा अंशुमान के पुत्र दिलीप हुये। दिलीप के पुत्र भगीरथ हुये, इन्हीं भगीरथ ने अपनी तपोबल से गंगा को पृथ्वी पर लाया। भगीरथ के पुत्र ककुत्स्थ और ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुये। रघु के अत्यंत तेजस्वी और पराक्रमी नरेश होने के कारण उनके बाद इस वंश का नाम रघुवंश हो गया। रघु के पुत्र प्रवृद्ध हुये जो एक शाप के कारण राक्षस हो गये थे, इनका दूसरा नाम कल्माषपाद था। प्रवृद्ध के पुत्र शंखण और शंखण के पुत्र सुदर्शन हुये। सुदर्शन के पुत्र का नाम अग्निवर्ण था। अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग और शीघ्रग के पुत्र मरु हुये। मरु के पुत्र प्रशुश्रुक और प्रशुश्रुक के पुत्र अम्बरीष हुये। अम्बरीष के पुत्र का नाम नहुष था। नहुष के पुत्र ययाति और ययाति के पुत्र नाभाग हुये। नाभाग के पुत्र का नाम अज था। अज के पुत्र दशरथ हुये और दशरथ के ये चार पुत्र रामचन्द्र, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न हैं।"

इक्ष्वाकु कुल का वर्णन करने के पश्चात् वशिष्ठ जी ने कहा, "हे राजन्! अब आप भी अपनी वंश परम्परा का परिचय दीजिये क्योंकि विवाह जैसे मांगलिक अवसरों पर दोनों ही कुल अपने-अपने वंश का परिचय देते हैं।"

महाराज जनक बोले, "महर्षि! आपने सर्वथा उचित बात कही है। अब मैं भी अपने कुल का परिचय देता हूँ। प्राचीन काल में निमि नामक एक धर्मात्मा राजा थे। उनके मिथि नामक पुत्र हुआ जिन्होंने मिथिला बसाई। मिथि के पुत्र का नाम जनक था, उन्हीं के नाम पर मिथिला के राजा लोग जनक कहलाते हैं। जनक के पुत्र उदावसु और उदावसु के पुत्र नन्दिवर्धन हुये। नन्दिवर्धन के पुत्र का नाम शूरवीर था। शूरवीर के पुत्र सुकेतु और सुकेतु के पुत्र देवरात हुये। देवरात के पुत्र का नाम बृहद्रथ था। बृहद्रथ के पुत्र महावीर और महावीर के पुत्र सुधृति हुये। सुधृति के पुत्र का नाम धृष्टकेतु था। धृष्टकेतु के पुत्र हर्यश्व और हर्यश्व के पुत्र मरु हुये। मरु के यहाँ प्रतीन्धक की उत्पत्ति हुई। प्रतीन्धक के पुत्र कीर्तिरथ, कीर्तिरथ के पुत्र देवमीढ़, देवमीढ़ के पुत्र विबुध और विबुध के पुत्र महीन्ध्रक हुये। महीन्ध्रक के पुत्र का नाम कीर्तिरथ था। कीर्तिरथ के पुत्र महारोमा, महारोमा के पुत्र स्वर्णरोमा और स्वर्णरोमा के पुत्र हृस्वरोमा हुये। हृस्वरोमा के दो पुत्र हुये। उनमें से बड़ा मैं हूँ और मुझसे छोटा कुशध्वज है। हम दोनों भाई इसी प्रदेश में रहकर राजकाज सम्भालते थे। कुछ काल पहले सांकाश्य के पराक्रमी राजा सुधन्वा ने मिथिला पर आक्रमण कर दिया। वह चाहता था कि मैं सीता का विवाह उसके साथ कर दूँ। मैंने उसकी माँग पूरी नहीं की इसलिये उसके साथ मेरा युद्ध हुआ जिसमें सुधन्वा मेरे हाथ से मारा गया। तब से मेरा कनिष्ठ भ्राता कुशध्वज सांकाश्य पर शासन करता है और मैं मिथिला पर। मैं अपनी बड़ी पुत्री सीता का विवाह राजकुमार रामचन्द्र के साथ और छोटी पुत्री उर्मिला का विवाह उनके कनिष्ठ भ्राता लक्ष्मण के साथ करना चाहता हूँ। मैं तीन बार इस बात को दुहराकर अपनी दोनों कन्याएँ आपको वधुओं के रूप में समर्पित करता हूँ।" फिर वे राजा दशरथ से कहने लगे, "हे नृपश्रेष्ठ! अब आप इनसे गौ दान कराकर नान्दीमुख श्राद्ध का कार्य सम्पन्न कीजिये। इसके पश्चात् लोक प्रचलित पद्धति के अनुसार विवाह का कार्य आरम्भ कीजिये। यह अवसर सर्वथा उपयुक्त एवं कल्याणकारी है। आज मघा नक्षत्र है, आज से तीसरे दिन फाल्गुनी नक्षत्र होगा। इससे अधिक उपयुक्त समय विवाह के लिये दूसरा नहीं हो सकता। आप इन दोनों भाइयों के अभ्युदय के लिये गौ, भूमि, स्वर्ण, तिल आदि का दान कराइये।"

राजा जनक के कथन समाप्त होने पर महामुनि विश्वामित्र बोले, "हे राजन्! आप और राजा दशरथ दोनों के ही कुल पूर्णतया धर्मपरायण, कीर्तियुक्त एवं समान हैं। अतः इन दोनों कुलों में विवाह सम्बंध सर्वथा उपयुक्त है। सीता और उर्मिला भी राम और लक्ष्मण के सर्वथा उपयुक्त हैं। आपके कनिष्ठ भ्राता कुशध्वज भी आपकी ही भाँति धर्मपरायण एवं प्रतिभासम्पन्न हैं। इनकी भी दो रूपवती, सुन्दर एवं विवाह योग्य कन्याएँ हैं। हे नरश्रेष्ठ! मैं चाहता हूँ उनका भी विवाह महारज दशरथ के दो योग्य और पराक्रमी पुत्रों, भरत और शत्रुघ्न, के साथ हो जाये।"

विश्वामित्र की बात सुनकर जनक बोले, "हे मुनिवर! आपके इस आदेश को स्वीकारते हुये मैं अपने कुल को धन्य समझता हूँ। आप भरत और शत्रुघ्न को आज्ञा दीजिये कि वे कुशध्वज की दोनों कन्याओं, माण्डवी एवं श्रुतकीर्ति, को अपनी-अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करें।

इसके बाद मिथिला नरेश से अनुमति लेकर राजा दशरथ वशिष्ठ जी और विश्वामित्र जी के सा जनवासे में लौट गये। दूसरे दिन चारों राजकुमारों ने याचकों को एक एक लाख स्वर्ण मण्डित सींगों वाली गौएँ दान दीं और भी बहुत सारा धन, आभूषण, रत्न आदि ब्रह्मणों को दान दिये

सोमवार, 12 मार्च 2012

अयोध्या में तैयारियाँ - बालकाण्ड (20)



मिथिलापुरी से अयोध्या तक का मार्ग तीन दिनों में तय करके महाराज जनक के मन्त्री राजा दशरथ के दरबार में पहुँचे। रत्नजटित सिंहासन पर विराजमान महाराज दशरथ का सादर अभिवादन करने के पश्चात् मिथिला के मन्त्री ने कहा, "हे राजन्! मिथिला नरेश ने आपका कुशल समाचार पूछा है और महर्षि विश्वामित्र की आज्ञा से उन्होंने आपके पास यह संदेश भेजा है कि समस्त संसार को ज्ञात है कि मिथिला के राजा जनक की पुत्री सीता अत्यन्त रूपवती, लावण्यमयी एवं समस्त सद्गुणों से सम्पन्न है। राजा जनक ने अपने यहाँ एक यज्ञ किया था। उसमें उन्होंने यह प्रतिज्ञा की थी कि जो कोई भी भगवान शंकर के विख्यात धनुष पिनाक पर प्रत्यंचा चढ़ा देगा उसके साथ वे राजकुमारी सीता का विवाह कर देंगे। उस यज्ञ में महामुनि विश्वामित्र राम और लक्ष्मण दोनों राजकुमारों के साथ जनक पुरी पधारे। राम ने धनुष पर प्रत्यंचा ही नहीं चढ़ा दी, बल्कि उस धनुष के दो टुकड़े भी कर दिये। इस प्रकार उन्होंने अपने अद्वितीय पराक्रम से सीता को प्राप्त कर लिया है। अतः राजा जनक ने आपसे सादर अनुरोध करते हुये यह संदेश भेजा है कि आप अपने समस्त परिजनों, बन्धु-बांधवों, मन्त्रियों एवं पुरोहितों तथा गुरु वशिष्ठ के साथ शीघ्र बारात लेकर मिथिला पधारने की कृपा करें ताकि राजकुमार श्री रामचन्द्र के साथ सौभाग्यकांक्षिणी सीता का विवाह वैदिक रीति से सम्पन्न हो सके और मिथिलेश कन्या के ऋण से उऋण हो सकें।

इस शुभ संदेश को सुनकर महाराज दशरथ अत्यन्त प्रसन्न हुये। राम लक्ष्मण की कुशलता एवं अद्भुत पराक्रम का समाचार सुनकर उनका हृदय विभोर हो गया। वे मन्त्रियों से बोले, "मन्त्रिवर! हमारा हृदय राम और लक्ष्मण से मिलने के लिये बहुत व्याकुल हो रहा है इसलिये आप शीघ्र ही परिजनों एवं दरबार के सभासदों के साथ जनक पुरी चलने की व्यवस्था कीजिये। समस्त बन्धु-बांधवों, राज्य के प्रतिष्ठित सेठ-साहूकारों, विद्वानों आदि सब को बारात में चलने के लिये निमन्त्रण पत्र भिजावाइये। सेनापति जी से कहिये कि वे शीघ्र चतुरंगिणी सेना को तैयार होने का आदेश दें। यदि सम्भव हो तो ऐसी व्यवस्था कीजिये कि हम सब लोग कल ही प्रस्थान कर सकें क्योंकि हमारे समधी मिथिला नरेश ने हमसे बहुत शीघ्र मिथिला पुरी पहुँचने का आग्रह किया है। साथ ही परम पूज्य राजगुरु वशिष्ठ जी, वामदेव, जाबालि, कश्यप, मार्कण्डेय, महर्षि कात्यायन आदि ऋषि-मुनियों से भी यह प्रार्थना करें कि वे कल प्रातःकाल ही हम लोगों के चलने से पहले ही जनक पुरी के लिये प्रस्थान कर जायें। इस बीच में हम तीनों महारानियों को यह शुभ समाचार देने के लिये जाते हैं।" इतना कह कर राजा दशरथ ने मन्त्रियों को आदेश दिया कि वे मिथिला से आये हुये अतिथियों का उचित सत्कार करें और उनके खान पान, ठहरने आदि का समुचित प्रबन्ध करें। इसके पश्चात् वे स्वयं राजप्रासाद के अन्तःपुर में पहुँचे और तीनों रानियों को बुलाकर यह शुभ संवाद सुनाया। शीघ्र ही यह समाचार सम्पूर्ण अयोध्या नगरी में फैल गया। घर-घर में मंगलगान होने लगे। नृत्य-संगीत का आयोजन होने लगा।

महाराज की आज्ञा पाकर मन्त्रीगण तथा भृत्यगण विवाह की तैयारियों में जुट गये। जन-जन के मन में अद्भुत उत्साह था। ऐसा प्रतीत होता था जैसे प्रत्येक व्यक्ति के भीतर विद्युत का संचार हो गया है। सभी लोग अभूतपूर्व द्रुतगति से समस्त कार्यों को सम्पन्न कर रहे थे। अर्द्धरात्रि होते होते चलने की सारी तैयारियाँ पूर्ण हो गईं और दूसरे दिन दल-बल के साथ राजा दशरथ रवाना हो गये। चार दिनों तक चलने के पश्चात् बारात मिथिला पुरी पहुँची। यह ज्ञात होते ही कि अयोध्या नरेश ऋषि-मुनियों, मन्त्रियों, परिजनों एवं अपनी सम्पूर्ण मण्डली के साथ नगर के निकट आ पहुँचे हैं मिथिला नरेश जनक अपने मन्त्रियों, पुरोहित, मुनियों, विद्वानों आदि को साथ लेकर उनकी अगवानी के लिये नगर के मुख्य द्वार पर जा पहुँचे। उन्हो्ने बड़े आदर के साथ राजा दशरथ की अभ्यर्थना करते हुये कहा, "हे नृपश्रेष्ठ! आपके दर्शन करके मैं कृतज्ञ हुआ और आपके पदार्पण करने से जनक पुरी की भूमि धन्य हुई। आपने सीता को अपनी कुलवधू के रूप में स्वीकार करके मेरे वंश को सम्मानित किया है। यह मेरा अहोभाग्य है कि आज मिथिला पुरी में महर्षि वशिष्ठ, वामदेव, मार्कण्डेय एवं कात्यायन जैसे परम तपस्वी महात्माओं के चरण पड़े हैं। मैं नहीं समझ पा रहा हूँ कि इस असाधारण सम्मान को पाकर किस प्रकार अपने भाग्य की सराहना करूँ।"

इस प्रकार समस्त आगत महानुभावों का सत्कार करके महाराज दशरथ को उनके साथ आये हुये ऋषि-मुनियों, बन्धु-बांधवों, मन्त्रियों एवं सैनिकों को जनवासे में ठहराने की उचित व्यवस्था की। जनवासे में राजा दशरथ बहुत देर तक मुनि विश्वामित्र और अपने दोनों पुत्रों के साथ बैठे हुये उनके कृत्यों और पराक्रम का विवरण सुनते रहे। इस विवरण को सुनकर कभी वे आनन्द से रोमांचित हो जाते, कभी आश्चर्य से दाँतो तले उँगली दबाने लगते और कभी प्रशंसा से अपने राजकुमारों की पीठ थपथपाने लगते। बातचीत करने के पश्चात् भोजनादि से निवृत होकर वे विश्राम करने चले गये

मंगलवार, 6 मार्च 2012

राम द्वारा धनुष भंग - बालकाण्ड (19)



लक्ष्मण को अत्यन्त क्रुद्ध एवं आवेश में देख कर राम ने संकेत से उन्हें अपने स्थान पर बैठ जाने का निर्देश दिया और गुरु विश्वामित्र की ओर देखने लगे मानो पूछ रहे हों के वर्तमान परिस्थिति में मुझे क्या करना चाहिये। विश्वामित्र ने कहा, "वत्स! लक्ष्मण ने सूर्यकुल की जिस मर्यादा एवं गौरव वर्णन किया है वह सत्य है। अब तुम धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर लक्ष्मण के वचन को सिद्ध कर के दिखाओ।"

गुरु की आज्ञा पाकर रामचन्द्र मन्द गति से पग बढ़ाते हुये शिव जी के धनुष के पास पहुँचे। राम को धनुष की ओर जाते देख सीता और उनकी सखियाँ तथा जनकपुरी के समस्त दर्शकगण अत्यंन्त प्रसन्न हुये। किन्तु उनकी प्रसन्नता को संशय ने घेर लिया। वे सोचने लगे कि जब विश्वविख्यात शक्तिशाली राजा और राजकुमार इस शिव जी के धनुष को हिला नहीं सके तो राम जैसे सुकुमार किशोर पिनाक की प्रत्यंचा चढ़ाने में कैसे सफल हो सकेंगे? सीता भी मन ही मन परमात्मा से प्रार्थना करने लगीं कि हे सर्वशक्तिमान! इन्हें इनके उद्देश्य में सफलता प्रदान करने की दया कीजिये। मेरा हृदय भी इनकी ओर आकर्षित हो गया है। अतः इसकी लाज भी आपको ही रखनी है। हे प्रभो! आप अपनी अद्भुत शक्ति से इस धनुष को इतना हल्का कर दीजिये कि यह सरलता से उनके द्वारा उठाया जा सके।

धनुष के पास पहुँचकर राम ने धनुष को बीच से पकड़कर सरलता के साथ उठा लिया और खेल ही खेल में उस पर प्रत्यंचा चढ़ा दी। प्रत्यंचा चढ़ाकर ज्योंही उन्होंने धनुष की डोर पकड़कर कान तक खींची त्योंही वह धनुष भयंकर शोर मचाता हुआ तड़तड़ा कर टूट गया। उस नाद से अधिकांश दर्शक मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़े। सिर्फ विश्वामित्र, राजा जनक, राम, लक्ष्मण आदि कुछ ही ऐसे लोग थे जिन पर इस भयंकर स्थिति का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। कुछ काल पश्चात् जब सबकी मूर्छा दूर हुई तो वे राम की सराहना करने लगे।

धनुष भंग हो जाने पर राजा जनक ने विश्वामित्र से कहा, "मुनिवर! मेरी प्रतिज्ञा पूर्ण हुई इसलिये अब मैं सीता का विवाह रामचन्द्र के साथ करना चाहता हूँ। मुझे अपने मंत्रयों और पुरोहित को विवाह का संदेश लेकर महाराजा दशरथ के पास अयोध्या भेजने की आज्ञा दें।"

विश्वामित्र प्रसन्न होकर बोले, "राजन्! आपकस ऐसा ही करना ही उचित है। अपने मंत्रियों को यह भी आदेश दे दें कि वे राजा दशरथ को सन्देश दे दें कि दोनों राजकुमार कुशलपूर्वक यहाँ पहुँच गये हैं।"

विश्वामित्र के वचनों से सन्तुष्ट होकर मिथिलापति जनक ने सीता को बुलवाया। वे अपनी सखियों के साथ हाथ में वरमाला लिये मन्थर गति से लजाती हुई वहाँ आईं जहाँ धनुष को तोड़ने के पश्चात श्री रामचन्द्र खड़े थे। सखियों ने मंगल गान प्रारम्भ किया और लज्जा, संकोच एवं हर्ष के भावों से परिपूर्ण सीता जी ने धीरे से श्री राम के गले में वरमाला डाल दी

धनुष यज्ञ - बालकाण्ड (18)



मिथिला नरेश के वहाँ से विदा हो जाने पर ऋषि विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को लेकर यज्ञ मण्डप में गये। यज्ञ मण्डप को अत्यंत सुरुचि के साथ सजाया गया था। उस भव्य मण्डप को देखकर लगता था मानों वह देवराज इन्द्र का दरबार हो। देश देशान्तर के राजा-महाराजाओं के बैठने की अति सुन्दर व्यवस्था की गई थी। मण्डप के ऊपर बहुमूल्य रत्नों से बने झालरयुक्त आकर्षक वस्त्रों का वितान तना हुआ था। वितान के चारों ओर फहरते हुये पताके मिथिलापति की कीर्ति को प्रदर्शित कर रहे थे। बीच-बीच में रत्नजटित स्तम्भ बनाए गए थे। वेदपाठी ब्रह्मण एवं तपस्वी शान्ति पाठ कर रहे थे। देदीप्यमान वस्त्राभूषणों को धारण किये राजकुमार अपने अपने आसनों पर विराजमान थे। ऐसा लग रहा था मानों सैकड़ों इन्द्र अपने वैभव और सौन्दर्य का प्रदर्शन करने के लिये महाराज जनक की यज्ञ भूमि में एकत्रित हुये हों। इस सौन्दर्य का अवलोकन करने के लिये जनकपुर की लावण्यमयी रमणियाँ अपने घरों के झरोखों से झाँक रही थीं।

गर्जन-तर्जन करते हये पिनाक को इस मनोमुग्धकारी वातावरण में यज्ञ भूमि में लाया गया। सभी की उत्सुक दृष्टि उसी ओर घूम गई। सहस्त्रों व्यक्ति उस धनुष को एक विशाल गाड़ी में धीरे-धीरे खींच रहे थे। उस विशालकाय बज्र के समान धनुष को देखकर बड़े-बड़े बलवानों का धैर्य छूटने लगा और पसीना आने लगा। पिनाक को यथास्थान पर स्थापित कर दिया गया। राजा जनक के ज्येष्ठ पुत्र सीता एवं उनकी सहेलियों को साथ लेकर धनुष के पास आये और बोले, "हे सम्पूर्ण संसार के राजाओं और राजकुमारों! महाराज जनक ने प्रतिज्ञा की है कि जो कोई भी महादेव जी के इस पिनाक नामक धनुष की प्रत्यंचा को चढ़ायेगा उसके साथ मिथिलापति महाराज जनक अपनी राजकुमारी सीता का विवाह कर देंगे।"

राजा जनक की इस प्रतिज्ञा को सुनकर राजा और राजकुमार बारी बारी से उस धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने के लिये आये किन्तु भरपूर प्रयास करके भी उस पर प्रत्यंचा चढ़ाना तो दूर उसे हिला भी न सके। अन्त में वे लज्जित हो सिर झुका कर तथा श्रीहीन होकर इस प्रकार अपने-अपने आसनों पर लौट गये जैसे कि नागराज अपनी मणि गवाँकर लौट आते हैं। इस प्रकार एक-एक करके सब राजाओं और राजकुमारों को विफल मनोरथ होकर लौटता देख महाराज जनक को बहुत दुःख हुआ। उन्होंने बड़ी निराशा के साथ मर्मभेदी स्वर में कहा, "सम्पूर्ण संसार के विख्यात शक्तिशाली योद्धा यहाँ विद्यमान हैं, किन्तु बड़े दुःख की बात है कि उनमें से कोई भी पिनाक पर प्रत्यंचा नहीं चढ़ा सका। उनकी इस असफलता को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि पृथ्वी शूरवीर क्षत्रियों से खाली हो गई है। यदि मुझे पहले से ज्ञात होता कि अब इस संसार में वास्तव में कोई क्षत्रिय योद्धा नहीं रहा है तो मैं न तो धनुष यज्ञ का अनुष्ठान करता और न ऐसी प्रतिज्ञा करता। लगता है कि मेरी पुत्री सीता आयुपर्यन्त कुँवारी रहेगी। परमात्मा ने उसके भाग्य में विवाह लिखा ही नहीं है।"

महाराज जनक की यह बात सुनकर उन सभी राजाओं और राजकुमारों ने, जो अपनी असफलता से पहले ही लज्जित हो रहे थे, क्षुब्ध मन से दृष्टि नीचे झुका लिया। राजा जनक के द्वारा की गई इस भर्त्सना का उनके पास कोई उत्तर न था। परन्तु अयोध्या के छोटे राजकुमार लक्ष्मण को मिथिलापति द्वारा समस्त क्षत्रियों पर लगाया गया लांछन सहन नहीं हुआ। कुपित होकर उन्होंने अपनी भृकुटि चढ़ा ली और तीखे शब्दों में बोले, "हे मिथिला के स्वामी राजा जनक! आपके ये शब्द सर्वथा अनुचित और सूर्यकुल तथा रघुवंश का अपमान करने वाले हैं। आश्चर्य है कि आपने ऐसे अपमानजनक शब्द कहने का साहस कैसे किया? जहाँ प्रतापी सूर्यकुल का साधारण व्यक्ति विद्यमान हो वहाँ भी कोई इस प्रकार तिरस्कार भरे शब्द कहने से पूर्व अनेक बार उस पर विचार करता है, फिर यहाँ तो सूर्यकुल के मणि श्री रामचन्द्र साक्षात् विराजमान हैं। आप शिव के इस पुराने पिनाक की इतनी गरिमा सिद्ध करना चाहते हैं। मैं बिना किसी अभिमान के कह सकता हूँ कि इस पुराने धनुष की तो बात ही क्या है, यदि मैं चाहूँ तो अपनी भुजाओं के बल से इस धनुष के स्वामी महादेव सहित सम्पूर्ण सुमेरु पर्वत को हिला कर रख दूँ। इस विशाल पृथ्वी को अभी इसी समय रसातल में पहुँचा दूँ।" ऐसा कहते हुये लक्षमण के नेत्र क्रोध से लाल हो गये, उनकी भुजाएँ फड़कने लगीं और उनका सम्पूर्ण शरीर क्रोध की ज्वाला के कारण थर थर काँपने लगा

पिनाक की कथा - बालकाण्ड (17)



दूसरे दिन प्रातःकाल राजा जनक से महर्षि विश्वामित्र ने कहा, "हे राजन्! दशरथ के इन दोनों कुमारों की इच्छा पिनाक नामक धनुष को देखने की है। अतः आप इनकी इच्छा पूर्ण करने की व्यस्था कर कीजिये।" राजा जनक के कुछ कहने से पूर्व ही राम ने कहा, "हे नरश्रेष्ठ! पहले आप हमें पिनाक का वृत्तान्त सुनाइये। हमने सुना है कि पिनाक शंकर जी का प्रिय धनुष है। शिव जी के पास से यह आपके पास कैसे आया?"

इस पर मिथिलापति जनक बोले, "हे राम! एक बार प्रजापति दक्ष ने एक बड़ा विशाल यज्ञ किया। दक्ष जी शंकर जी के श्‍वसुर थे। अपने जामाता से अप्रसन्न के कारण उन्होंने उस यज्ञ में न तो शिव जी को आमन्त्रित किया और न ही अपनी पुत्री सती को। पति के समझाने बुझाने की परवाह न करके सती अपने पिता के यहाँ यज्ञ में पहुँच गईं। वहाँ सती का बहुत अपमान हुआ। सती ने देखा कि देवताओं के लिये यज्ञ का जो भाग निकाला गया था उसमें शिव जी का भाग था ही नहीं। इससे क्रुद्ध होकर सती ने यज्ञकुण्ड में कूद कर अपने प्राण त्याग दिये। महादेव जी के गणों ने, जो सती के साथ राजा दक्ष के यहाँ आये थे, लौट कर महादेव जी को सारा वृत्तान्त बताया। सती की मृत्यु की सूचना पाकर महादेव जी बड़े क्रुद्ध हुये। उन्होंने राजा दक्ष की यज्ञ भूमि में जाकर उस यज्ञ को नष्ट कर डाला। फिर वे अपना पिनाक नामक धनुष चढ़ा कर देवताओं को मारने के लिए अग्रसर हुए क्योंकि देवताओं ने उस यज्ञ का भाग महादेव जी को नहीं दिया था। महादेव जी का यह रौद्र रूप देखकर सारे देवता बहुत भयभीत हुये। देवताओं ने अनुनय विनय करके महादेव जी का क्रोध शान्त कराया। क्रोध शान्त होने पर महादेव जी ने पिनाक को देवताओं को दे दिया और कैलाश पर्वत पर लौट गये।

"देवताओं ने उस धनुष को हमारे पूर्वपुरुष देवरात को दे दिया। तभी से वह धनुष हमारे यहाँ रखा है। हमारे पूर्वजों का स्मृति-चिह्न होने के कारण हम इस धनुष की देखभाल सम्मान के साथ करते आ रहे हैं। इसी बीच एक बार हमारे राज्य में अनावृष्टि के कारण सूखा पड़ गया जिससे प्रजाजनों को भयंकर कष्ट का सामना करना पड़ा। उस कष्ट से मुक्‍ति पाने के लिये मैंने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया। पुरोहितों के आदेशानुसार मैंने अपने हाथों से खेतों में हल चलाया। हल से भूमि खोदते खोदते भगवान की इच्छा से मुझे एक परम रूपवती कन्या प्राप्त हुई। उसे मैं अपने राजमहल में ले आया और उसका नाम सीता रखकर अपनी पुत्री के समान उसका लालन-पालन करने लगा। जब सीता किशोरावस्था को प्राप्त हुई तो दूर दूर तक उसके सौन्दर्य एवं गुणों की ख्याति फैलने लगी। देश-देशान्तर के राजकुमार उसके साथ विवाह करने के लिये लालायित होने लगे। मैं अद्‍भुत पराक्रमी योद्धा के साथ ही सीता का विवाह करना चाहता था अतः मैंने यह प्रतिज्ञा कर ली कि शिव जी के धनुष पिनाक पर प्रत्यंचा चढ़ा देने वाला वीर राजकुमार ही सीता का पति होगा।

"मेरी प्रतिज्ञा की सूचना पाकर सहस्त्रों राजकुमार और राजा-महाराजा समय समय पर अपने बल की परीक्षा करने के लिये यहाँ आये किन्तु पिनाक पर प्रत्यंचा चढ़ाना तो दूर वे उसे तिल भर खिसका भी न सके। जब वे अपने उद्देश्य में इस प्रकार निराश हो गये तो वे सब मिलकर मेरे राज्य में उत्पात मचाने लगे। मेरे प्रदेश को चारों ओर से घेर लिया और निरीह प्रजाजनों को लूटकर आतंक फैलाने लगे। मैं अपनी सेना को लेकर उनके साथ निरन्तर युद्ध करता रहा। वे अनेक राजा थे। उनके पास सेना भी बहुत अधिक थी। इसलिये इस संघर्ष में मेरी बहुत सी सेना नष्ट हो गई। इस पर मैंने भगवान को सहारा मान कर उनकी तपस्या की। मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान ने मुझे देवताओं की चतुरंगिणी सेना प्रदान की। उस सेना ने आततायी राजाओं के साथ भयंकर युद्ध किया और सभी उपद्रवी राजकुमारों को भगाया। उनके भाग जाने के बाद मैंने सोचा कि एक विशाल यज्ञ करके इस अवसर पर ही अपनी प्रतिज्ञा पूरी करूँ और सीता का विवाह कर निश्चिन्त हो जाऊँ। इसी लिये मैंने इस महान यज्ञ का आयोजन किया है।

"अब जो कोई भी महादेव जी के इस धनुष की प्रत्यंचा चढ़ा देगा उसी वीर पुरुष के साथ मेँ अपनी अनुपम गुणवती पुत्री सीता का विवाह करके निश्चिन्त हो जाउँगा।