दूसरे दिन राजा दशरथ के दरबार में सभी देशों के राजा लोग उपस्थित थे। सभी को सम्बोधत करते हुये दशरथ ने कहा, "हे नृपगण! मैं अपनी और अयोध्यावासियों की ओर से आप सभी का हार्दिक स्वागत करता हूँ। आपको ज्ञात ही है कि अयोध्या नगरी में अनेक पीढ़ियों से इक्ष्वाकु वंश का शासन चलता आ रहा है। इस परम्परा को निर्वाह करते हुए मैं अब अयोध्या का शासन-भार अपने सभी प्रकार से योग्य, वीर, पराक्रमी, मेधावी, धर्मपरायण और नीतिनिपुण ज्येष्ठ पुत्र राम को सौंपना चाहता हूँ। अपने शासन काल में मैंने अपनी प्रजा को हर प्रकार से सुखी और सम्पन्न बनाने का प्रयास किया है। अब मैं वृद्ध हो गया हूँ और इसी कारण से मैं प्रजा के कल्याण के लिये अधिक सक्रिय रूप से कार्य करने में स्वयं को असमर्थ पा रहा हूँ। मुझे विश्वास है कि राम अपने कौशल और बुद्धिमत्ता से प्रजा को मुझसे भी अधिक सुखी रख सकेगा। अपने इस विचार को कार्यान्वित करने के लिये मैंने राज्य के ब्राह्मणों, विद्वानों एवं नीतिज्ञों से अनुमति ले ली है। वे सभी मेरे इस विचार से सहमत हैं और उन्हे विश्वास है कि राम शत्रुओं के आक्रमणों से भी देश की रक्षा करने में सक्षम है। राम में राजत्व के सभी गुण विद्यमान हैं। उनकी दृष्टि में राम अयोध्या का ही नहीं वरन तीनों लोकों का राजा होने की भी योग्यता रखता है। इस राज्य के लिये आप लोगों की सम्मति भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। अतः आप लोग इस विषय में अपनी सम्मति प्रदान करें।"
महाराज दशरथ के इस प्रकार कहने पर वहाँ पर उपस्थित सभी राजाओं ने प्रसन्नतापूर्वक राम के राजतिलक के लिये अपनी सम्मति दे दी।
राजा दशरथ ने कहा, "आप लोगों की सम्मति पाकर मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ। क्योंकि चैत्र मास - जो सब मासों में श्रेष्ठ मधुमास कहलाता है - चल रहा है, कल ही राम के राजतिलक के उत्सव का आयोजन किया जाय। मैं मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठ जी से प्रार्थना करता हूँ कि वे राम के राजतिलक की तैयारी का प्रबन्ध करें।"
राजा दशरथ की प्रार्थना को स्वीकार कर के राजगुरु वशिष्ठ जी ने सम्बन्धित अधिकारियों को आज्ञा दी कि वे यथाशीघ्र स्वर्ण, रजत, उज्वल माणिक्य, सुगन्धित औषधियों, श्वेत सुगन्धियुक्त मालाओं, लाजा, घृत, मधु, उत्तम वस्त्रादि एकत्रित करने का प्रबन्ध करें। चतुरंगिणी सेना को सुसज्जित रहने का आदेश दें। स्वर्ण हौदों से सजे हुये हाथियों, श्वेत चँवरों, सूर्य का प्रतीक अंकित ध्वजाओं और परम्परा से चले आने वाले श्वेत निर्मल छत्र, स्वर्ण निर्मित सौ घोड़े, स्वर्ण मण्डित सींगों वाले साँड, सिंह की अक्षुण्ण त्वचा आदि का शीघ्र प्रबन्ध करें। सुसज्जित वेदी का निर्माण करें। इस प्रकार अन्य और जितने भी आवश्यक निर्देश थे, उन्होंने सम्बंधित अधिकारियों को दे दिये।
इसके पश्चात् राजा दशरथ ने प्रधानमन्त्री सुमन्त से राम को शीघ्र लिवा लाने के लिए कहा। महाराज की आज्ञा के अनुसार सुमन्त रामचन्द्र जी को रथ में अपने साथ बिठा कर लिवा लाये। अत्यन्त श्रद्धा के साथ राम ने पिता को प्रणाम किया और उपस्थित जनों का यथोचित अभिवादन किया। राजा दशरथ ने राम को अपने निकट बिठाया और मुस्कुराते हुये कहा, "हे राम! तुम्हारे गुणों से समस्त प्रजाजन प्रसन्न है। इसलिये मैंने निश्चय किया है किस मैं कल तुम्हारा राजतिलक दर दूँगा। इस विषय में मैंने ब्राह्मणों, मन्त्रियों, विद्वानों एवं समस्त राजा-महाराजाओं की भी सम्मति प्राप्त कर लिया है। इस अवसर पर मैं तम्हें अपने अनुभव से प्राप्त कुछ सीख देना चाहता हूँ। सबसे पहली बात तो यह है कि तुम कभी विनयशीलता का त्याग मत करना। इन्द्रियों को सदा अपने वश में रखना। अपने मन्त्रियों के हृदय में उठने वाले विचारों को प्रत्यक्ष रूप से जानने और समझने का प्रयास करना। प्रजा को सदैव सन्तुष्ट और सुखी रखने का प्रयास करना। यदि मेरी कही इन बातों का तुम अनुसरण करोगे तो तुम सब प्रकार की विपत्तियों से सुरक्षित रहोगे और लोकप्रियता अर्जित करते हुये निष्कंटक राजकाज चला सकोगे। यह सिद्धांत की बात है कि जो राजा अपनी प्रजा को प्रसन्न और सुखी रखने के लिये सदैव प्रयत्नशील रहता है, उसका संसार में कोई शत्रु नहीं होता। यदि कोई व्यक्ति स्वार्थवश उसका अनिष्ट करना भी चाहे तो भी वह अपने उद्देश्य में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता क्योंकि ऐसे राजा को अपनी प्रजा एवं मित्रों का हार्दिक समर्थन प्राप्त होता है।"
पिता से यह उपयोगी शिक्षा प्राप्त करके राम ने स्वयं को धन्य माना और उन्होंने अपने पिता को आश्वासन दिया कि वे अक्षरशः इन बातों का पालन करेंगे।
दास-दासियों ने राजा के मुख से राम का राजतिलक करने की बात सुनी तो वे प्रसन्नता से उछलते हुये महारानी कौशल्या के पास जाकर उन्हें यह शुभ संवाद सुनाया जिसे सुनकर उनका रोम-रोम पुलकित हो गया। इस शुभ समाचार के सुनाने वालों को उन्होंने बहुत सा स्वर्ण, वस्त्राभूषण देकर मालामाल कर दिया|
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