सोमवार, 9 अप्रैल 2012

भीलराज गुह - अयोध्याकाण्ड (13)


गंगा के इस प्रदेश पर भीलों का अधिकार था और उनके राजा का नाम गुह था। एक लोकप्रिय एवं सशक्त शासक होने के साथ ही साथ गुह राम का भक्त भी था। यह ज्ञात होने पर कि राम अपने लघु भ्राता लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ उसके क्षेत्र में आये हुये हैं, वह अपने मन्त्रियों तथा परिजनों के साथ उनके स्वागत के लिये आ पहुँचा। भीलराज गुह को देखकर राम स्वयं आगे बढ़े और उनसे गले मिले। वक्कल धारण किये हुये राम, सीता और लक्ष्मण को देख कर गुह को अत्यन्त क्षोभ हुआ। उसने विनयपूर्ण तथा आर्त स्वर में कहा, "हे रामचन्द्र! इस प्रदेश को आप अपना ही प्रदेश समझें। आप यहाँ का अधिपति बनकर यहाँ का शासन सँभाल लें। आपके समान समदर्शी एवं न्यायवेत्ता शासक पाकर यह प्रदेश धन्य हो जायेगा। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि यह सम्पूर्ण भूमि आपकी ही है और हम सब आपके अनन्य सेवक हैं।"


इतना कहकर गुहराज ने अपने साथ लाई हुई सामग्री को राम के समक्ष रख दिया और बोला, "हे, स्वामी! ये भक्ष्य, पेय, लेह्य तथा स्वादिष्ट फल आपकी सेवा में प्रस्तुत है। आप कृपा करके इन्हें स्वीकार करें। आप लोगों के विश्राम के लिये व्यवस्था कर दी गई है। अश्वों के लिये दाना-चारा भी तैयार है।"

गुह की प्रेममय वचनों को सुनकर राम बोले, "हे निषादराज! आप इस प्रदेश के राजा हैं फिर भी आप मेरे स्वागत के लिये पैदल चलकर आये हैं। मैं आपकी जितनी प्रशंसा करूँ, कम है। आपने दर्शन देकर हम लोगों को कृतार्थ कर दिया है।"

इस प्रकार निषादराज की प्रशंसा करते हुये राम उन्हें प्रेमपूर्वक अपने पास बिठा लिया और मधुर वाणी में कहने लगे, "भीलराज! आपको सानन्द और सकुशल देखकर मुझे अत्यधिक प्रसन्नता हो रही है। आपके द्वारा लाये गये इन उत्तमोत्तम पदार्थ के लिये मैं आपका अत्यंन्त आभारी हूँ। किन्तु बन्धु! मुझे खेद है कि मैं इन्हें स्वीकार नहीं कर सकता। ये सारे पदार्थ राजा-महाराजाओं के खाने योग्य हैं किन्तु अब हम तपस्वी हो गये हैं और हमारा भोजन तो केवल कन्द-मूल-फल है। अतः हम इसे ग्रहण नहीं कर सकते। हाँ, अश्वों के लिये आप जो दाना-चारा लाये हैं उन्हें स्वीकार करके मुझे बहुत प्रसन्नता होगी क्योंकि ये मेरे पिताजी के प्रिय अश्व हैं, जिनकी सदैव विशेष देख-भाल की जाती है।"

गुह ने भीलों को अश्वों के विशेष प्रबन्ध करने के लिये आदेश दे दिया। सन्ध्या होने पर राम, सीता और लक्ष्मण ने गंगा में स्नान किया तथा ईश्वरोपासना के पश्चात् उन्होंने कन्द-मूल-फल का आहार किया। गुहराज उन्हें उस कुटी तक ले गये जहाँ पर उन्होंने उनके विश्राम के लिये अपने हाथों से प्रेमपूर्वक तृण शैयाएँ बनाई थीं। कुटी में पहुँच कर गुह ने कहा, "हे दशरथनन्दन! आप इन शैयाओं पर विश्राम कीजिये। मैं आपका दास हूँ अतः मैं पूर्ण रात्रि जाग कर हिंसक पशुओं से आप लोगों की रक्षा करूँगा आप हमें सर्वाधिक प्रिय हैं। इसलिये आप लोगों की सुरक्षा के लिये रात भर मेरे ये सभी साथी धनुष बाण लेकर तत्पर रहेंगे।"

उनकी बातें सुनकर लक्ष्मण ने कहा, "हे गुहराज! मुझे आपकी शक्ति, निष्ठा और भैया राम के प्रति आपके अनन्य प्रेम पर पूर्ण विश्वास है। निःसन्देह आपके राज्य में हमें किसी प्रकार की विपत्ति की आशंका नहीं हो सकती। किन्तु मैं भैया राम का दास हूँ अतः मैं इनके बराबर में सो नहीं सकता। मैं भी रात भर आपके साथ पहरा देकर अपना कर्तव्य पूरा करूँगा।

भीलराज गुह और लक्ष्मण कुटी के बाहर एक शिला पर बैठकर पहरा देते हुये बातें करने लगे। लक्ष्मण ने गुह को अयोध्या में घटित समस्त घटनाओं के विषय में बताया। इस प्रकार वह रात्रि व्यतीत हो गई|

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