सोमवार, 10 दिसंबर 2012

महर्षि अत्रि का आश्रम - अयोध्याकाण्ड (25)



जब भरत चित्रकूट से वापस अयोध्या लौट गये तो राम ने लक्ष्मण से कहा, "हे सौमित्र! माताएँ वापस चली गईं इसलिये मेरा हृदय उदास तथा उद्विग्न हो गया है। इस स्थान के साथ उन सबकी स्मृति जुड़ गई है। मुझे बारम्बार उनकी स्मृति सताने लगी है। अतः मेरा विचार है कि अब हम इस स्थान का परित्याग कर दें और अन्यत्र कहीं जाकर निवास करें।"


इस प्रकार सीता और लक्ष्मण से अपने विचार का समर्थन प्राप्त करके उन्होंने चित्रकूट का परित्याग कर दिया और वहाँ से चल पड़े। चलते-चलते वे महर्षि अत्रि के आश्रम में जा पहुँचे। उन्होंने परमतपस्वी वृद्ध महर्षि को प्रणाम किया तथा अपना परिचय दिया। महर्षि अत्रि ने उनका स्नेहपूर्वक स्वागत किया। फिर महर्षि अत्रि ने अपनी वृद्धा पत्नी अनुसूया को मिथिलानरेश की राजकुमारी तथा अयोध्या की ज्येष्ठ पुत्रवधू सीता से परिचय करवाया तथा उनका यथोचित सत्कार करने के लिये कहा।

इस पर राम ने भी सीता से कहा, "सीते! माता के समान स्नेहमयी अनुसूया देवी के चरण स्पर्श करो।"

सीता ने अनुसूया के चरण स्पर्श किये और उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया।

अनुसूया बोलीं, "सीता! तुमने राजप्रासाद के ऐश्वर्य का परित्याग कर अपने पति के साथ वन में, जहाँ पर भाँति भाँति के कष्टों को झेलना पड़ता है, रहने का का जो निश्चय किया है वह तुम्हारा महान त्याग है। मैं तुम्हारे त्याग से अत्यन्त प्रसन्न हूँ। तुमने तीनों लोकों में नारी के पतिव्रत धर्म की महिमा को महिमामंडित कर दिया है। हे सुभगे! जो अपने पति के गुण-अवगुणों का विचार किये बिना उसे ईश्वर के समान सम्मान देती है और प्रत्येक दुःख-सुख में उसका अनुसरण करती है उस स्त्री के चरणों पर स्वर्ग स्वयं न्यौछावर हो जाता है। पति चाहे कितना ही कुरूप, दुश्चरित्र, क्रोधी और निर्धन क्यों न हो, वह पत्नी के लिये सदैव श्रद्धेय है। उसके जैसा कोई दूसरा सम्बन् नहीं होता। पति की सच्ची सेवा ही स्वर्ग का मार्ग प्रशस्त करती है। जो स्त्री अपने पति में दुर्गुण देखती है, उस पर अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिये उसके साथ नित्य कलह करती है तथा उसकी अवमानना और उसकी आज्ञाओ की अवहेलना करती है, उसे इस लोक में अपयश तो मिलता ही है पर मृत्यु के पश्चात् नर्क को भी जाती है। तुम स्वयं समस्त शास्त्रों को जानने वाली हो तथा अपने पति की अनुगामिनी हो अतः तुम्हें तो किसी प्रकार की शिक्षा देने की आवश्यकता ही नहीं है। तुमने अपने कर्तव्य पालन करके तीनों लोकों में कीर्ति प्राप्त की है। मेरा आशीर्वाद है कि तुम्हारी बुद्धि सदा इसी प्रकार निर्मल बनी रहे।"

देवी अनुसूया के इन उपदेशों को सुनकर सीता बोली, "हे आर्या! आपके उपदेश मेरे लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण है। मेरी माता और सास ने भी मुझे यही शिक्षा दी है कि पति स्त्री का गुरु, देवता और सर्वस्व होता है। अब आपके द्वारा दी गई शिक्षा को भी मैंने हृदयंगम कर लिया हैं। मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि पति का अनुगमन ही मेरे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है और मैं कभी इस मार्ग से विचलित नहीं होउँगी।"

सीता के वचनों को सुनकर अनुसूया ने कहा, "पुत्री! मैं तुझसे बहुत प्रसन्न हूँ। अपनी इच्छानुसार कोई वर माँग। मैं वनवासिनी अवश्य हूँ किन्तु दैवी शक्ति से किसी भी मानव की मनोकामना पूर्ण करने में समर्थ भी हूँ।"

सीता बोलीं, "माता! मैं पूर्णतया सन्तुष्ट हूँ। आपने मुझ पर असीम कृपा की है, यही मेरे लिये यथेष्ठ है।"

इस पर प्रसन्न होकर अनुसूया ने कहा, "हे जानकी! तुम सदा सौभाग्वती रहो। यद्यपि तुमने कुछ भी नहीं माँगा है तथापि मैं तुम्हें यह दिव्य माला देती हूँ। इस माला के फूल कभी नहीं कुम्हलायेंगे। ये दिव्य वस्त्र भी स्वीकार करो। ये न कभी मैले होंगे और न फटेंगे। यह सुगन्धित अंगराग भी मैं तुम्हें देती हूँ जो कभी फीका नहीं पड़ेगा।"

अनुसूया ने तीनों वस्तुएँ सीता को देकर उन्हें अपने सम्मुख ही धारण कराया। उनके चरणों में सिर नवाकर सीता रामचन्द्र के पास गईं और उन्हें माता अनुसूया के दिये उपहार दिखाये। सन्ध्या को सबने एक साथ बैठकर सन्ध्योपासना की। तत्पश्चात् अनुसूया सीता को चंद्र की शुभ्र ज्योत्नायुक्त रात्रि में वन की शोभा दिखाने के लिये ले गईं। फिर आध्यात्मिक चर्चायें हुईं। अन्त में सभी ने मुनि के आश्रम में विश्राम किया।

प्रातःकाल जब राम ने अत्रि ऋषि से विदा लिया तो वे बोले, "हे रघुनन्दन! इन वनों में मनुष्यों को अनेक प्रकार के कष्ट देने वाले भयंकर राक्षस निवास करते हैं जिनके कारण अनेक तपस्वियों को असमय ही काल कालवित हो जाना पड़ा है। मेरी इच्छा है कि तुम इनका विनाश करके तपस्वियों की रक्षा करो।"

राम ने महर्षि की आज्ञा को शिरोधार्य किया तथा उपद्रवी राक्षसों को नष्ट करने का वचन दिया। फिर सीता तथा लक्ष्मण के साथ वहाँ से दण्डक वन के लिये प्रस्थान कर गये।
||वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड समाप्त ||

1 टिप्पणी:

  1. Namaste Bhaiji, dharm ka prachar karna har ek arya ka kartavya hai, vedo ne hi kaha hai "krinvanto vishwamaryam" mera bhi wahi uddeshya hai jo apka hai. Kintu pahle us parmatma ko janana awashyak h jiske vishay me shashtra kahti hai "jnanam jneyam" arthat tatwagyan se janane yogya us parmatma ko pahle jane! Tabhi dharm hamare antarhriday me prakat hogi! Visit : www.facebook.com/djjsworld

    - sanjeev kumar sanatani

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